साकेत महाकाव्य | Saket Maithilisharan Gupta PDF In Hindi

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साकेत महाकाव्य – Saket Maithilisharan Gupta PDF Free Download

साकेत महाकाव्य

स्वर्ग से भी आज भूलत बढ गया भाग्य भास्कर उदयगिरिपर चढ गया। हो गया निर्गुण सगुण-साकार है। ले लिया अखिलेश ने अवतार है । किसलिए यह खेल प्रभु ने है किया ?

मनुज बनकर मानवी का पय पिया ? भक्त वत्सलता इसीका नाम है, और वह लोकेश लीला-धाम है।

पथ दिखाने के लिए तार को , दूर करने के लिए भू-भार को , सफल करने के लिए जन-दृष्टियाँ क्यो न करता वह स्वयं निज सृष्टिया असुर-शासन शिशिर-मय हेमन्त है , पर निवट हो राम-राज्य प्रांत है।

पापियो का जान लो यव सन्त है , भूमि पर एकटा अनादि अनन्त है। |सम सीला, धन्य धीराम्बर-इना , गीय सह सम्पत्ति, लक्ष्मण-उर्मिला ।

भरत वत्ता, माण्डवी उनकी निया , ति-सी श्र,तिफीर्ति दाजुन्रमिया । ग्रहण की है चार जैसी पूर्तियाँ , ठीक वैसी चार माया-मूर्तियाँ । धन्य दशरथ-जनक-पुण्योत्वपं है, घन्य भगवद्भमि – भारतवर्ष है।

(देख लो, साकेत मगरी है यही , | स्वर्ग से मिलने गगन मे जा रही। केतु-पट अचल-सदृश है उड रहे , कनक-कलशो पर अमर-हग जुड रहे) सोहती हैं विविध – शालाएँ बडी, छत उठाये भित्तियाँ चित्रित खडी। रोहियो के चारू-चरितो की उठी , छोडती है छाप, जो उनपर पड़ी।

स्वच्छ, सुन्दर और विस्तृत घर बने , इन्द्रघनुपावार तोरण हैं तने । देव-दम्पति पट्ट देश साराहते . उतरकर विश्राम करना चाहते ।

फूल-फनकर, फैलकर जो है वढी , दीपं जो पर विविध बेले चडी

पौरक याएँ प्रसून – स्तूप बर , वृष्टि करती हैं यही से भूप पर । फूल – पत्ते हैं गवाक्षो में बुद़े, प्रकृति से ही वे गये मानो गढे ।

दामनी भीतर दमकती है कभी, चन्द्र वो माला चमकती है यभी। सर्वदा स्वच्छन्द दजो तले , प्रेम के आदर्श पारावत पले ।

केश रचना के सहायर हैं शिखी, नित्र में मानो अयोध्या है लिखी ।

दृष्टि मे वैभव भरा रहता सदा प्राण में आमोद है बहुत सदा । डाल ते है शब्द श्रुति सुधा , मे स्वाद गिन पाती नही रसना-शुधा

“मोहिनी ने मन्त्र पड जब से छुपा ,

जागरण रुचिकर तुम्हे जब से हुआ !”

गत हुई सलाप में वहु रातथी,

प्रथम उठने की परस्पर बात थी।*

“जागरण है स्वप्न से श्रच्छा कही !”

“ प्रेम में कुछ भी बुरा होता नही !”

“प्रेम की यह रुचि विचित्र सराहिए ,

योग्यता क्या कुछ न होनी चाहिए ?”

“घन्य है प्यारी, तुम्हारी योग्यता ,

मोहिनी-सी मूर्ति, मजु-मनोज्ञता।

घन्य जो इस योग्यता के पास हैँ ;

किन्तु मैं भी तो तुम्हारा दास हूँ।”

“दास बनने का बहाना किसलिये ?

क्या मुझे दासी कहाना, इसलिए ?

देव होकर तुम सदा मेरे रहो ,

और देवी ही मुझे रक्‍्खो, श्रहों

ऊमिला यह कह तनिक चुप हो रही ,

तब कहा सौमित्रि ने कि “यही सही ।

| तुम रहो मेरी हृदय-देवी सदा,

मैं तुम्हारा हैँ प्रसय-सेवी सदा।!

फिर कहा–/बरदान भी दोगी भुझे ?

मानिनी, कुछ मान भी दोगी भुमे ?” ऊमिला बोली:कि

“यह क्‍या धर्म है ? किमना को छोड़कर ही कम है !”

“किन्तु मेरी कामना छोटी-बडी ,

है तुम्हारे पाद-पद्मों में पडी।

त्याग था स्वीकार कुछ भी हो भले ,

बह तुम्हारी वस्तु ग्राश्ित-वत्सले !”

“शक्नधारी हो न तुम, विप के बुझे ,

क्यों न काँटों में घसीटोगे मुझे!

झवद अबला हैं न मैं, कुछ भी करो ,

किन्तु पैर नही, शिरोरुह तब घरो !”

लेखक मैथिलीशरण गुप्ता-Maithilisharan Gupta
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 477
PDF साइज़3.6 MB
Categoryकाव्य(Poetry)

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