साधक संजीवनी | Sadhak Sanjivani PDF In Hindi By Ramsukh Das

‘साधक संजीवनी’ PDF Quick download link is given at the bottom of this article. You can see the PDF demo, size of the PDF, page numbers, and direct download Free PDF of ‘Sadhak Sanjivani’ using the download button.

भगवद गीता साधक संजीवनी – Sadhak Sanjivani PDF Free Download

भगवद गीता साधक संजीवनी

श्रीमद्भगवद्गीता एक ऐसा विलक्षण ग्रन्थ है, जिसका आजतक न तो कोई पार पा सका, न पार पाता है, न पार पा सकेगा और न पार पा ही सकता है गहरे उतरकर इसका अध्ययन-मनन करनेपर नित्य नये-नये विलक्षण भाव प्रकट होते रहते हैं।

गौतामें जितना भाव भरा है, उतना बुद्धिमें नहीं आता। जितना बुद्धिमें आता है, उतना मनमें नहीं आता। जितना मनमें आता है, उतना कहने में नहीं आता। जितना कहने में आता है, उतना लिखने में नहीं आता।

गीता असीम है, पर उसकी टीका सीमित ही होती है। हमारे अन्तःकरणमें गीताके जो भाव आये थे, वे पहले ‘साधक- संजीवनी’ टीका में लिख दिये थे। परन्तु उसके बाद भी विचार करनेपर भगवत्कृपा तथा सन्तकृपासे

गीताके नये-नये भाव प्रकट होते गये उनको अब ‘परिशिष्ट भाव’ के रूपमें साधक-संजीवनी’ टीकामें जोड़ा जा रहा है। ‘साधक-संजीवनी’ टीका लिखते समय हमारी समझमें निर्गुणकी मुख्यता रही;

क्योंकि हमारी पढ़ाईमें निर्गुणको मुख्यता रही और विचार भी उसीका किया परन्तु निष्पक्ष होकर गहरा विचार करनेपर हमें भगवान्के सगुण ( समग्र) स्वरूप तथा भक्तिकी मुख्यता दिखायी दी।

केवल निर्गुणको मुख्यता माननेसे सभी बातोंका ठीक समाधान नहीं होता। परन्तु केवल सगुणको मुख्यता माननेसे कोई सन्देह बाकी नहीं रहता। समग्रता सगुणमें ही है, निर्गुणमें नहीं। भगवान्ने भी सगुणको हो समग्र कहा है-‘असंशयं समग्रं माम्’॥

परिशिष्ट लिखनेपर भी अभी हमें पूरा सन्तोष नहीं है और हमने गीतापर विचार करना बन्द नहीं किया है। अतः आगे भगवत्कृपा तथा सन्तकृपासे क्या-क्या नये भाव प्रकट होंगे-इसका पता नहीं !

परन्तु मानव-जीवनकी पूर्णता भक्ति (प्रेम) को प्राप्तिमें ही है-इसमें हमें किंचिन्मात्र भी हमारे अन्तःकरणमें गीताके जो भाव आये थे, वे पहले ‘साधक- संजीवनी’ टीका में लिख दिये थे।

भगवान् अनन्त हैं, उनका सब कुछ अनन्त है, फिर उनके मुखारविन्दसे निकली हुई गीताके भावोंका अन्त आ ही कैसे सकता है ? अलग-अलग आचार्योंने गीताकी अलग-अलग टीका लिखी है।

उनकी टीकाके अनुसार चलनेसे मनुष्यका कल्याण तो हो सकता है, पर वह गीताके अर्थको पूरा नहीं जान सकता। आजतक गीताकी जितनी टीकाएँ लिखी गयी हैं, वे सब-की-सब इकट्ठी कर दें तो भी गीताका अर्थ पूरा नहीं होता !

जैसे किसी कुएँसे सैकड़ों वर्षोंतक असंख्य आदमी जल पीते रहें तो भी उसका जल वैसा का वैसा ही रहता है, ऐसे ही असंख्य टीकाएँ लिखनेपर भी गीता वैसी की वैसी ही रहती है, उसके भावोंका अन्त नहीं आता।

कुएँके जलकी तो सीमा है, पर गीताके भावों की सीमा नहीं है।

अत: गीताके विषयमें कोई कुछ भी कहता है तो वह वास्तवमें अपनी बुद्धिका ही परिचय देता है- ‘सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई ॥’ (मानस, बाल० १३ । १) ।

लेखक रामसुख दास-Ramsukha Das
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 1264
Pdf साइज़7.5 MB
Categoryसाहित्य(Literature)

साधक संजीवनी संस्कृत- हिंदी – Sadhak Sanjivani Pdf Free Download

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!