भारत में राष्ट्रवाद का उदय | Rise Of Nationalism PDF In Hindi

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भारत में राष्ट्रवाद का उदय एवं विकास – Rise And Development Of Nationalism In India PDF Free Download

राष्ट्रवाद का उदय

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना बहुत तेजी से विकसित हुई और भारत में एक संगठित राष्ट्रीय आंदोलन का आरंभ हुआ।

दिसंबर 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नींव पड़ी। आगे चल कर इसी के नेतृत्व में विदेशी शासन से स्वतंत्रता के लिए भारतीयों ने एक लंबा और साहसी संघर्ष किया।

विदेशी प्रभुत्व के परिणाम

आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद बुनियादी तौर पर विदेशी आधिपत्य की चुनौती के जवाब रूप में उदित हुआ। स्वयं ब्रिटिश शासन की परिस्थितियों ने भारतीय जनता में राष्ट्रीय भावना विकसित करने में सहायता दी।

ब्रिटिश शासन और उसके प्रत्यक्ष और परोक्ष परिणामों ने ही भारत में राष्ट्रीय आंदोलन के विकास के लिए भौतिक नैतिक और बौद्धिक परिस्थितियों तैयार की।

इस आंदोलन की जड़े भारतीय जनता के हितों और भारत में ब्रिटिश नीतियों के टकराव में थीं। अंग्रेजों ने अपने हितों को पूरा करने के लिए ही भारत को अपने अधीन बनाया था।

इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए वे भारत का शासन चला रहे थे। वे अक्सर ब्रिटेन के लाभ के लिए भारतीयों की भलाई को भी ध्यान में नहीं रखते थे।

धीरे धीरे भारतीयों ने अनुभव किया कि लांकाशायर के उद्योगपतियों और अंग्रेजों के दूसरे प्रमुख वर्गों के अधिकारों के लिए उनकी अपनी भावनाओं का बलिदान दिया जा रहा है।

स्वयं ब्रिटिश शासन भारत के आर्थिक पिछड़ेपन का मुख्य कारण बनता गया और भारत में आंदोलन का आधार यही तथ्य था।

यह भारत के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक तथा राजनीतिक विकास में प्रमुख बाधक तत्व बन चुका था। इससे भी बड़ी बात यह है कि अधिक से अधिक भारतीय इस तथ्य को स्वीकार करने लगे थे और उनकी यह संख्या बढ.

भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक समूह ने धीरे धीरे यह देखा कि उसके हित अंग्रेज शासकों के हाथों में असुरक्षित है।

किसान देख रहे थे कि सरकार मालगुजारी के नाम पर उनकी उपज का एक बड़ा हिस्सा उनसे ले लेती थी।

सरकार और उसकी पुलिस, उसकी अदालते और उसके अधिकारी, सभी उन जमींदारों और भूस्वामियों के समर्थक और रक्षक जो किसान से

कसकर लगान वसूलते थे वसूलते थे, वे उन व्यापारियों और सूदखोरों के रक्षक थे जो तरह तरह से किसान को धोखा देते, उसका शोषण करते और उसकी जमीन उससे छीन लेते थे।

जब कभी किसान जमींदारों और सूदखोरों के दमन के खिलाफ उठ खड़े होते हैं, तो पुलिस और सेना और व्यवस्था के नाम पर उनको कुचल दिया करती थी

दस्तकार और शिल्पी यह महसूस कर रहे थे कि सरकार विदेशी प्रतियोगिता को प्रोत्साहन प्रोत्साहन देकर उनको तबाह कर रही थी और उनके पुनर्वास के लिए कुछ नहीं कर रही यो आगे चलकर बीसवीं शताब्दी में आधुनिक कारखानों, खदानों तथा बगानों के मजदूरों ने पाया कि सारी जबानी हमदर्दी के बावजूद सरकार पूजीपतियों का, खासकर विदेशी पूंजीपतियों का ही साथ देती थी।

जब कभी मजदूर ट्रेड यूनियन बनाने तथा हडतालों, प्रदर्शनों और अन्य संघर्षो के द्वारा स्थिति को सुधारने के प्रयत्न करते, सरकार का पूरा तब उनके विरुद्ध उठ खड़ा होता ।

इसके अलावा उन्होंने यह भी महसूस किया कि बढ़ती बेरोजगारी का समाधान केवल तीव्र औद्योगीकरण से संभव है और यह कार्य केवल एक स्वाधीन सरकार कर सकती है।

भारतीय समाज के दूसरे समूह भी कुछ कम असंतुष्ट नहीं थे। शिक्षित भारतीयों का उभरता हुआ वर्ग अपने देश की दयनीय आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति को समझने के लिए नए नए प्राप्त आधुनिक ज्ञान का उपयोग कर रह था।

पहले जिन लोगों ने 1857 में ब्रिटिश शासन का समर्थन इस आशा में समर्थन किया था कि विदेशी होने के बावजूद यह शासन देश को एक आधुनिक और औद्योगिक देश बनाएगा, वे अब धीरे धीरे निराश होने लगे थे।

आर्थिक दृष्टि से उन्हें आशा थी कि ब्रिटिश पूंजीवाद ने जैसे ब्रिटेन में उत्पादक शक्तियों को विकसित किया था, उसी प्रकार वह भारत की शक्तियों को भी विकसित करेगा।

लेकिन उन्होंने यह पाया कि ब्रिटेन के पूंजीवाद के इशारों पर भारत में ब्रिटिश शासन ने जो नीतियां अपनाई वे देश को आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा या अल्पविकसित बनाए हुए थीं और उसकी उत्पादक शक्तियों के विकास के बाधक हो रहे थी।

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