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नष्ट जातकम – Ancient Indian Lost Horoscope Book PDF Free Download
पुस्तक में से कुछ शब्द
जातक की जन्मपत्रिका नष्ट हो गयी हो, या, गर्भाधान और जन्म की तिथि आदि ज्ञात ही न हो तो ज्योतिष में एक ऐसी विधि है जिससे उसका उचित परिज्ञान हो सकता है।
यह विधि नष्ट जातक ज्ञान के नाम से ज्योतिष के प्रायः सभी ग्रन्थों में प्रतिपादित की गयी है। किन्तु, इस विधि के विभिन्न पक्षों का प्रतिपादन इस ग्रन्थ में जितना और जिस रूप में है उतना उस रूप में दूसरे ग्रन्थ में नहीं मिलता, और, एक आचार्य के मत से दूसरे आचार्य के मत में भिन्नता भी है ।
इसलिए ज्योतिष के विद्वान्, शोधार्थी और जिज्ञासु यह अनुभव करते रहे हैं कि इन सभी प्रतिपादनों को एक स्थान पर इस तरह प्रस्तुत किया जाए कि नष्ट जातक ज्ञान के सभी पक्ष वर्गीकृत होकर तो सामने आएं ही इस सम्बन्ध में विभिन्न आचार्यों के मतभेदों का आधार और सीमा भी ज्ञात हो सके ।
श्री मुकुन्द दैवज्ञ ! व्यक्तित्व और कृतित्व
छन्दःपादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोथ पठ्यते । ज्योतिषामयनं चक्षुर् निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ॥
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम् । तस्मात् साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते ॥
वेद के षडङ्गों में ज्योतिषशास्त्र को वेद-पुरुष का चक्षु कहा गया है । इसी विज्ञान चक्षु से प्राचीन आचार्यों ने प्रकृति के सूक्ष्म से सूक्ष्म क्रिया कलापों का अध्ययन किया । अतः यह उक्ति पूर्णतया सार्थक है कि अनधीत-ज्योतिषशास्त्रो वेद-विषयेन्ध इव भवति ।
जिस प्रकार वीज सम्यक् काल में आरोपित होने पर अंकुरित और पल्लवित होता है उसी प्रकार सभी वैदिक-लौकिक कार्य सम्यक् काल में किये जाने पर ही फलीभूत होते हैं। अतएव वेद-आज्ञा है कि कृत्ति कास्वग्नीन् आदधीत । कृत्तिका क्या है, यह पञ्चाङ्गविद् ही जानता है, और पञ्चाङ्गनिर्माण ज्योतिविद् द्वारा ही सम्भव है ।
नष्ट-जातक की रचना का उद्देश्य
जिसके गर्भाधान और जन्म की तिथियों की ठीक-ठीक जानकारी न हो उसकी जन्म की तिथि आदि का ज्ञान नष्ट-जातक से होता है।
जन्म की तिथि आदि के ज्ञान से प्राणी के जीवन की शुभ या अशुभ घटनाओं पर जो प्रकाश डालता है उसे जातकशास्त्र कहते हैं। तथा, नष्ट हो जाने पर उस जन्मकाल को जिस ज्ञान से पुनः वताया जाता है वह नष्ट-जातक है।
अथेहादौ नष्ट-जातकायनम्
1-4 आधान जन्मापरिबोध-काले संपृच्छतो जन्म वदेद् विलग्नात् । पूर्वापराधे भवनस्य विन्द्याद् भानावुदग्-दक्षिण-गे प्रसूतिम् ॥
जन्म के प्रयन का ज्ञान
गर्भाधान और जन्म की तिथि आदि की जानकारी न हो तो वह प्रश्न लग्न के माध्यम से प्राप्त की जानी चाहिए। प्रश्न- लग्न १५ अंश से कम हो तो जन्मतिथि सूर्य के उत्तरायण काल में तथा प्रश्न- लग्न १५ अंश से अधिक हो तो वह सूर्य के दक्षिणायन काल में पड़ती है ।
जन्म के वर्ष और ऋतु का ज्ञान
प्रश्नलग्न के द्रेष्काणों के अनुसार लग्न में, या लग्न से पंचम राशि में, या लग्न से नवमं राशि में गुरु को मानकर वय के अनुमान से जन्म का वर्ष ज्ञात करना चाहिए।
तात्पर्य यह है कि प्रश्नलग्न में प्रथम द्रेष्काण हो तो लग्न की राशि में और द्वितीय द्रेष्काण हो तो लग्न से पंचम राशि में तथा तीसरा द्रेष्काण हो तो लग्न से नवम राशि में गुरु मानकर गुरु की इस राशि से प्रश्नकालीन गुरु की राशि तक गणना कर संख्या जान लेनी चाहिए।
और फिर प्रश्नकर्ता की आकृति एवं अवस्था के अनुसार उक्त संख्या में १२-१२ जोड़कर प्रश्नकर्ता की आयु या जन्मवर्ष का निर्धारण करना चाहिए। प्रश्न लग्न में सूर्य हो या सूर्य का द्रेष्काण हो तो जन्मकाल ग्रीष्म ऋतु में वताना चाहिए ।
और शेष चन्द्र आदि ग्रह हों तो, ‘द्रेष्काण: शिशिरा दयः शशुरुचज्ञ०’, इस रीति से ऋतु का निर्णय करना चाहिए ।
अर्थात्, प्रश्नलग्न में शनि या शनि का द्रेष्काण हो तो शिशिर, शुक्र हो तो वसन्त, मंगल हो तो ग्रीष्म, चन्द्रमा हो तो वर्षा, बुध हो तो शरद् एवं गुरु या गुरु का द्रेष्काण हो तो हेमन्त ऋतु में जन्म कहना चाहिए ।
लेखक | आचार्य मुकुंद दैवग्य |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 152 |
PDF साइज़ | 49.5 MB |
Category | Astrology |
Source/Credits | archive.org |
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