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महागाथा – Mahagatha PDF Free Download
महागाथा सीतेश आलोक
वह एक संयोग था… महाराज शान्तनु के जीवन का सबसे सुखद संयोग वास्तविकता जानकर उन्होंने सन्तोष की साँस ली और विधाता के प्रति मन ही मन आभार प्रकट किया।
महाराज प्रतीप जब सन्तान प्राप्ति के लिए गंगा तट पर स्थित महर्षि च्यवन के आश्रम में तपस्या कर रहे थे… उन्हीं दिनों उनका परिचय निकटवर्ती राज्य के एक श्रेष्ठ निधिपति से हुआ वंश एवं वर्ण की असमानताएँ नकारते हुए, स्वभाव-वश, उन दोनों के बीच अन्तरंग मैत्री का सम्बन्ध स्थापित हुआ.. और अनायास ही एक दिन, बातों ही बातों में,
उन्होंने एक दूसरे को वचन दिया कि यदि भाग्य ने उनमें से किसी एक को पुत्र दिया और दूसरे को कन्या प्रदान की, तो उन दोनों का विवाह करके वे अपनी मैत्री को निकट सम्बन्ध का रूप प्रदान करेंगे।
भी एक संयोग ही था कि प्रतीप की पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया…. के लगभग अन्तिम पड़ाव में पुत्र जन्म ने उनके व्याकुल मन को अपूर्व शान्ति आयु प्रदान की…
और इसी शान्ति से प्रेरित होकर उन्होंने पुत्र को शान्तनु नाम दिया। कुछ ही समय पश्चात् उन्हें समाचार प्राप्त हुआ कि उनके मित्र निधिपति को पुत्री रत्न प्राप्त हुआ है।
निधिपति ने प्रसन्नतापूर्वक न केवल यह शुभ समाचार भेजा, साथ ही महाराज प्रतीप को पारस्परिक वचन का स्मरण भी कराया। प्रतीप तो वैसे भी वचन बद्ध थे… फिर इस संयोग में भी उन्हें विधाता की कोई योजना दिखी, परमात्मा का आदेश परिलक्षित हुआ।
उन्होंने प्रसन्नता एवं उत्साह में भरकर अपनी भावी पुत्रवधू के लिए आशीर्वाद सहित श्रीफल तथा कुछ स्वर्ण आभूषण भेजे। किन्तु कुछ ही वर्षों में घटनाक्रम ने एक और मोड़ लिया… शान्तनु किशोरावस्था पार कर ही रहे थे कि महाराज प्रतीप ने रोग ग्रस्त होकर शैया पकड़ ली।
सभी उपचारों को निष्फल होता देख उन्होंने राज्य पर शान्तनु का अभिषेक किया और, उन्हीं दिनों, एक बार जब निधिपति उनके दर्शनार्थ आये तो उन्होंने पुत्र शान्तनु को बुलाकर उन्हें उनके विवाह के सम्बन्ध में वचन की बात बतायी।
“आप स्वस्थ तो हो लें पिताश्री!” शान्तनु ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा, “फिर आपका जो भी आदेश होगा, मैं उसका पालन करूँगा।” आज्ञाकारी शान्तनु की बात सुनकर प्रतीप को ही नहीं, श्रेष्ठ निधिपति को भी परम सन्तोष हुआ।
अपनी स्वीकृति देते समय शान्तनु को कहाँ ज्ञात था कि पिता की आज्ञा का पालन उन्हें स्वयं अकेले ही करना होगा… समय पिता के स्वस्थ होने की प्रतीक्षा नहीं
कर पाएगा। पिता की अन्त्येष्टि में सम्मिलित होने, न जाने क्यों निधिपति नहीं आ पाये थे… और फिर समय ने भी अनायास ही स्मृति के उस अध्याय को धुंधला करना प्रारम्भ कर दिया।
युवावस्था में प्रवेश करते शान्तनु के सम्मुख राज्य के प्रशासकीय कार्यों ने व्यक्तिगत सुविधाओं -आकांक्षाओं के लिए कोई समय ही नहीं छोड़ा।
किन्तु यौवन जब जीवन का द्वार खटखटाता है, तब संसार के प्रत्येक प्राणी को व्यस्तता का बड़े से बड़ा प्रयोजन भी गौण लगने लगता है।
यौवन अनजाने ही शान्तनु के मन पर अपना आधिपत्य जमाने लगा था… एक दिन गंगा तट पर विहार करते समय उन्होंने एक अत्यन्त रूपवती कन्या को देखा।
उसका अपार सौन्दर्य देखकर वे मोहित हो गये… और यदा-कदा उसी तट पर जाकर उस कन्या की प्रतीक्षा करना उनकी दिनचर्या का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गया।
धीरे-धीरे वह कन्या भी उन्हें पहचानने लगी… और एक बार उन्हें देखकर मुस्करायी भी शान्तनु ने उसके विषय में जानना चाहा तो उन्हें ज्ञात हुआ कि यह सरिता के सुदूर तट पर कहीं रहती है और यदा कदा इस पार किसी निकटवर्ती आश्रम में आती रहती है।
“तुम्हारा नाम क्या है सुन्दरि ?” शान्तनु ने एक बार सामना पड़ने पर उससे पूछ ही लिया। “गंगा….” कहते हुए उसने मृदु हास्य बिखेर दिया। शान्तनु के कानों में उसका संगीतमय स्वर देर तक झंकृत होता रहा और स्मृति पटल पर उसकी मुस्कान अंकित हो गयी।
उन्हें लगा कि उस संगीत के बिना उनका जीवन नितान्त सूना रह जाएगा… उस मुस्कान के अभाव में संसार का कोई वैभव उन्हें कभी कोई सुख नहीं दे पाएगा।
उन्हें ज्ञात था कि एक समृद्ध साम्राज्य का शासक होने के नाते मनचाहा जीवन साथी प्राप्त कर लेने में उन्हें कोई बाधा नहीं आएगी… किन्तु तभी उन्हें मृत्यु शैया पर पड़े अपने पिता के वचन का स्मरण दुविधा में डालने लगा। दुविधा यह भी थी कि पिताश्री की आकस्मिक मृत्यु के कारण उनके पास पिता द्वारा चुनी हुई कन्या का कोई सम्पर्क सूत्र नहीं था… और कई वर्षो से उस कन्या के पिता का भी कोई समाचार उन्हें नहीं प्राप्त हुआ था।
इस दुविधा में शान्तनु को लगा कि उनके मन की उड़ान पर पिताश्री का वचन किसी बड़े अंकुश की भाँति आ बैठा है। अपने मन के इस भँवर से निकलने का कोई मार्ग तो उन्हें ढूँढना ही था।
उन्होंने मन-ही-मन पिता की स्मृति को प्रणाम करते हुए यह निर्णय लिया कि वे एक वर्ष तक और प्रतीक्षा करेंगे, कि किसी भी सूत्र से उन्हें पिताश्री द्वारा चुनी हुई कन्या का पता ज्ञात हो जाए… और यदि ऐसा न हुआ, तो वे विधाना का आदेश मानकर गंगा से विवाह का प्रस्ताव करेंगे।
एक वर्ष की वह अवधि बहुत ही लम्बी थी… किन्तु पिता के वचन को ध्यान में रखते हुए शान्तनु ने बड़े धैर्य के साथ स्वयं अपने द्वारा निर्धारित उस समय सीमा.
लेखक | सीतेश आलोक – Sitesh Alok |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 655 |
Pdf साइज़ | 42.2 MB |
category | कहानिया(Story) |
महागाथा | Mahagatha Pdf Free Download