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मध्यप्रदेश का इतिहास – Madhya Pradesh Ka Itihas PDF Free Download
मध्यप्रदेश का इतिहास
मगध देश में वैभव-हीम छोटे मोटे राजा रह गए थे। उनमें से एक का विवाह मेपाल के लिच्छवि-वंश में हो गया। इस राजा का नाम चंद्रगुप्त था। लिच्छवि वंश में संबंध होने के कारण उसका गौरव बहुत बढ़ गया, क्योंकि वह वंश बहुत प्राचीन, प्रतापी और प्रभावशाली था।
लिच्छवियों से उसे प्राचीन वैभवशाली राजधानी पाटलिपुत्र प्राप्त हो गई। तब तो चंद्रगुप्त ने अवसर पा अपना महत्त्व इतना बढ़ाया कि शोघ्र ही उसने महाराजाधिराज का विरुद धारण कर लिया और गुप्त नामक संवत्सर का प्रचार सन् ३२० ई० में कर दिया।
चंद्रगुप्त का लड़का समुद्रगुप्त हुआ, जिसने चंद्रगुप्त मौर्य की नाई अपने राज्य की सीमा तेलंगाना तक फैलाने का लयोग किया और अनेक राजाओं को परास्त कर उन्हें मांडलिक बना दिया।
जब वह दिग्विजय को निकला. तो सागर जिले ही से होकर दक्षिण को गया। जान पड़ता है कि सागर उसे बहुत प्रिय स्तगा, क्योंकि उसने बीना नदी के किनारे एरन में ‘स्परभोग-नगर’ रचा।
उसके खंडहर प्रब तक विद्यमान है । एरन में एक शिलालेख मिला है। उसी में इस बात का उल्लेख पाया जाता है । यह पत्थर विष्णु के मंदिर में लग- वाया गया था।
समुद्रगुप्त के दिग्विजय की प्रशस्ति इलाहाबाद की हाट में खुदी है, जिसमें अनेक जातियों और राजा के नाम लिखे हैं, जिन्हें जीसकर उसने अपने वश में कर लिया अथवा उमका विभ्वंस कर डाला था।
उसमें से एक जाति खर्षरिक है जो दमोह या उसके आसपास के जिलों में अवश्य रहती रही होगी। इस जिले के बटिहा- गढ़ नामक स्थान में चैदहया शताब्दी का एक शिलालेख मिला है जिसमें खर्पर सेना का उल्लेख है।
प्रागेतिहासिक कांल
भूमि की बहुत प्राचीन दशा का पता भूगर्भ-विद्या से लगता है। पत्थर और चट्टान ही उसके सुझ्य चारण हैं जे उसकी महिमा और आयु का उच्चारण करते हैं। इनकी गवाही से जान पड़ता है कि कई हजार वर्ष पूर्व सध्य प्रदेश के बहुत से भाग में समुद्र लहराता था।
उसके पश्चात् उसने कडी भूमि का वेष घारण किया और वनस्प- तिये। के उगने का अवसर दिया, पश्चात् प्राणियों का आविर्भाव हुआ। इन सब में मानुपी उपज सबसे पोछे की समझो जाती है। सब से प्राचीन मानवी सृष्टि का क्या नाम था, यह ते अरब विदित नहीं है परतु ज्ञो अब जगली जातियाँ कही जाती हैं वे सबसे प्राचीन लोगों की सतति हैं।
मध्य प्रदेश में फाई ४४ प्रकार की जगली जातियाँ पाई जाती हैं। इसमें से कई एक निस्सदेह शआर्यो के झाने के पूर्व यहाँ पर विद्यमान थी। इन सब जातियो में गोंडों फी सझ्या सब से अधिक दै। गोंड जाति को जनसझ्या कोई २२ लाख है। ऐसा फोई जिता यथा रजवाडा नहीं जहाँ पर ये न पाए जाते हों।
किसी किसी जगह तो इनकी सख्या सैक्रडा पोछे साठ से भी अधिक पडती है, जैमे उत्तर में मडला जिले में श्रार दक्षिण में बस्तर रियासत में। कह्ठी कहीं पर पचास वर्ष पूर्व ये लोग बिलकुल नग्न अवस्था में विचरते थे। ये अपनी भाषा में अपनी जाति को फोयतूर कहते है जिसका भ्रर्थ द्वाता है सनुष्य ॥
इससे यह निष्फर्प निरुलता थे कि ये लोग अपने को अन्य जानवरों से बिलगानेवाले शब्द का उपयेग करते थे। पशुओं झोौर इनकी स्थिति से बडा भारी अतर नहों था।
जान पडता है, इसी फारण जब शआर्यो से सपर्क हुआ तब उस सभ्य जाति ने इन प्रसभ्ये का पशु समान समममर धृषासूचक गोंड की उपाधि लगा दी जिसका यथाथे अधे ढोर ( पशु ) दावा है।
किसी किसी ने इन लोगों या इनके पन्य भाडइयों फो बदर भालू राक्षस इत्यादि की उपमा दे डाली, जिनका समावेश रामायथ समान बडे मद्दर्व के अरधों में भी दे गया।
लेखक | रायबहादुर – Raybahdur हीरालाल – Heralal |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 132 |
PDF साइज़ | 4.2 MB |
Category | इतिहास (History) |
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