आयुर्वेदिक क्रिया शरीर | Kriya Sharir Book PDF

क्रिया शरीर – Ayurvedik Kriya Sharir Book PDF Free Download

पुस्तक का एक मशीनी अंश

जैसा कि आगे जाकर विलासे कहा जागा, दोष, घके उपधातु तथा मलके समुदायसे यह पारीर बना है। शरीरमें प्रत्येक अमु-मुक हवि-नियय गुण- कर्म है । इन गुण-कौफ सम्पावनके लिये प्रत्येकका मुकं निश्रित प्रमाणमें रहना आवश्यक है ।

प्रत्येक नम ईस निर্ित प्रमाणसे न अधिक होता है मैं न्यून, किन्तु यथायोग्य प्रमाणमें होता है, तभी अपने प्रकृति-नियते, হाक-प्रतिपादित गुण-कर्माको निर्वाह समुचित स्पमे कर सकता है।

बोषादि जय अपने यथायोग्य प्रमाणमें होते हैं तो उन्हें ‘संम’ या ‘माहत’ कही आता है, तथा उगकी इस स्थितिको ‘समवा’ या साम्य कहते हैं। इनमें कोई भी अपने शोधोक्त कमाँको मले प्रकारसे कर रहा हो तो कह सकते हैं। कि यह समावस्थामें है ।

दोषादिकी समावस्था स्वास्थ्यमें होती है। अथवा यों कहना चाहिये कि, इनकी समावस्था हो स्वास्थ्य है।दोषादिको समतासे भिन्न संस्थाको ‘विषमता’ या वैषम्य’ कहते हैं । इसमें दोष या तो वृद्धिको प्राप्त (प्रकुपित ) हुए होते हैं या क्षीणता अर्थात् हासको प्राप्त हुए होते हैं ।

ये जय प्रकुपित होते हैं तो अपने प्रकृति-नियत गुण कमाको अधिक मात्रामें करने लगते हैं, जिससे शरीर आगे कदे जानेवाले प्रकारसे विकारयसा (रोगी) होता है। ये ही जब क्षीण होते हैं

तो उनके स्वाभाविक गुणे कर्म न्यून मात्रामें होते हैं, जिससे शरीरमें वर तेत् विक्रिया होती है। शरीरमें दोषादिकी विषमता ही रोगोंकी जननी है।वोषादिके गुण-कमौकी स्वाभाविकता, दृवि या क्षीणतांको देखकर वैद्यको उनके अनुकमसे समता,

प्रकोप और क्षयका अनुमान करना चाहिये। इसके अनन्तर, योग्य उपचारसे सम दोपादिके साम्पको रक्षा, प्रकुपित उनका झय तथा दासित हुए उनकी वृद्धि करनी चाहिये ।

लेखक रंजीत राय देसाई-Ranjit Rai Desai
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 930
Pdf साइज़47.3 MB
Categoryस्वास्थ्य(Health)

आयुर्वेदिक क्रिया शरीर – Kriya Sharir Vigyan Book/Pustak Pdf Free Download

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