भारतीय कृषि | Indian Agriculture Notes PDF In Hindi

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भारतीय कृषि क्षेत्र: समस्या और उपाय – Notes Of Indian Agriculture, Competitive PDF Free Download

भारतीय कृषि

कृषि मानव जगत की बड़ी पुरानी परम्परा है और इसका ने उतना ही है, जितना कि मानव निवास। इसमें मानव की संपूर्ण सभ्यता निहित वि की संकल्पना की व्याख्या एक कठिन कार्य है।

कृषि शब्द का अंग्रेजी पर्याय Agriculture है, जो लैटिन भाषा के Agriculture (Age खेत का टुकड़ा, Cultura खेती करना) से लिया गया है।

परन्तु कृषि में केवल इतनी ही बातें सम्मिलित नहीं हैं। इसके अंतर्गत खेत की जुताई और फसल की बुआई के अतिरिक्त फलोत्पादन, वृक्षारोपण, पशुपालन तथा मत्स्य पालन भी सम्मिलित है।

भोजन की प्राप्ति इसका सबसे मुख्य ध्येय है। इसके साथ-साथ कच्चे माल का उत्पादन करना भी इसका मुख्य लक्ष्य है।

प्रसिद्ध भूगोलविद् ‘जिम्मरमैन’ के अनुसार ‘कृषि के अंतर्गत वे उत्पादक प्रयास सम्मिलित हैं, जिसे भूमि पर बसा हुआ मानव प्रयोग करता है और पौधों एवं पशु जीवन की प्राकृतिक जननिक प्रणाली को इस सीमा तक प्रोत्साहित एवं संशोधित करता है, जिससे ये मानव के लिए वांछित या आवश्यक वनस्पति एवं पशु उत्पाद प्रदान करती है।

स्पष्ट कि कृषि की सीमा में मृदा-पोषण, मृदा-उपयोग, फसलोत्पादन, बागवानी, पशुपालन, सिंचाई, मत्स्य पालन जैसे प्राथमिक कार्यों को सम्मिलित किया जाता है।

कृषि की प्रक्रिया आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक अनेक चरणों में विकसित हुई है। जहां विकास की प्रक्रिया मंद रही है, वहां आज भी जीवन-निर्वाहक कृषि (Subsistense Agriculture) की प्रधानता है, लेकिन विकसित अर्थतंत्र वाले देशों में गहन निर्वाहक और व्यापारिक कृषि की जाती है।

फसलोत्पादन बागवानी, पशुपालन, मत्स्य पालन आदि कृषि के स्वरूपों में वैज्ञानिक, तकनीकी और बाजार की उन्नत व्यवस्था के कारण कृषि की प्रकारिकी (Typology) विविध रूपों में देखने को मिलती है।

कृषि स्वरूप को प्रभावित करने वाले भौतिक कारकों में जलवायु, मृदा, धरातल आदि का भी गहरा प्रभाव पड़ता है। चाय की कृषि केवल ढालू भूमि पर ही अधिक उपयुक्त होती है।

अतः स्पष्ट है कि विश्व में भौतिक, मानवीय एवं आर्थिक कारकों की असमानता के कारण ही कृषि के स्वरूप में विविधता की उपस्थिति पाई जाती है।

कृषि का क्षेत्रीय समूहन भी पाया जाता है। नगरों के चारों ओर साग-सब्जी, फल-फूल, दूध आदि का उत्पादन सामान्यतः देखने को मिलता है, जबकि दूर-दराज के क्षेत्रों में अन्न और पशुपालन जैसे कृषि कार्यों की प्रधानता पायी जाती है।

जिस क्षेत्र में एक विशेष प्रकार की कृषि की प्रधानता पायी जाती है, वह उसकी पहचान बन जाती है। इस पक्ष को अनेक विद्वानों ने रेखांकित करने का प्रयास किया है।

आधुनिक कृषि के स्थानीयकरण को सबसे पहले जर्मन विद्वान ‘वान ध्यूनेन’ ने समझाने का प्रयास किया और बाद में अनेक विद्वानों ने इस दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

वास्तव में भूमि उपयोग के स्वरूप के निर्धारण में कृषि से अर्जित लाभ सबसे अधिक प्रभावशाली पक्ष है। अतः बाजारोन्मुख कृषि के स्वरूप निर्धारण में लागत और लाभ निर्णायक पक्ष होते हैं। स्वरूप कृषि को प्रभावित करने वाले कारक

किसी भी क्षेत्र की कृषि की विशेषता व प्रकार पर अनेक भौतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा प्राविधिक कारकों का प्रभाव पड़ता है।

ये निम्नलिखित हैं:

भौतिक कारकः कृषि की विशेषता पर सर्वाधिक प्रभाव भौतिक कारकों का पड़ता है। प्रभाव कृषि पर प्रत्यक्ष रूप से पड़ता है- धरातलीय ऊंचाई तथा धरातलीय ढाल।

धरातल की ऊंचाई अधिक होने पर हवा का दबाव कम हो जाता है तथा जलवायु शीतल हो जाती है, जिससे फसलों का बदलना स्वभाविक है। हिम रेखा पर पहुंचते-पहुंचते कृषि कार्य पूर्णरूपेण समाप्त हो जाता है।

धरातल की ढाल कृषि कार्य में सहायक या बाधक होता है। धरातल का मंद ढाल, जल निकास तथा जुताई के लिए उपयुक्त होता है, परन्तु तीव्र ढाल पर जुताई न हो पाने से तथा मिट्टी कटाव से मिट्टी का अस्तित्व नहीं रह पाता।

जलवायु की दशाएं:

कृषि कार्य पर सर्वाधिक प्रभाव तापमान और वर्षा का पड़ता है। तापमान की दशाओं में भिन्नता के साथ कृषि में भी भिन्नता पायी जाती है।

फसलों के लिए औसत तापमान 10% सेंटीग्रेड से लेकर 28° सेंटीग्रेड तक माना गया है। फसलों के उत्पादन पर वर्षा की मात्रा का भी बड़ा प्रभाव पड़ता है।

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भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 12
PDF साइज़5 MB
CategoryEducation
Source/Creditsdrive.google.com

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