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भारतीय मूर्तिकला का इतिहास – History of Indian Sculpture PDF Free Download
भारतीय मूर्तिकला का इतिहास
भारत में, जहाँ के अधिकांश निवासी मूर्ति-पूजक हैं, यह बताने की विशेष आवश्यकता नहीं कि मूर्ति क्या है।
सोना, चाँदी, ताँबा, काँसा, पीतल, अष्टधातु यादि सभी प्राकृतिक तथा कृत्रिम धातु, पारे के मिश्रण, रत्न, उपरत्न, काँच, कड़े और मुला यम पत्थर, मसाले, कच्ची वा पकाई मिट्टी, मोम, लाख, गंधक, हाथीदाँत, शंख, सीप, अस्थि, सींग, लकड़ी एवं कागद के कुट आदि उपादानों को उनके स्वभाव के अनुसार गढ़कर, खोदकर, उभारकर, कारकर’, पीटकर, हाथ से वा श्रौजार से डौलियाकर र, ठप्पा करके वा साँचा छापके ( अर्थात् जो प्रक्रिया जिस उपादान के अनुकूल हो एवं जिस प्रक्रिया में जो खिलता हो ), उत्पन्न की हुई आकृति का मूर्ति कहते हैं ।
किन्तु श्राज मूर्ति का अर्थ हमारे यहाँ इतना संकुचित हो गया है कि हम उसे एकमात्र पूजा की वस्तु मान बैठे हैं, सो भी यहाँ तक कि उसकी पूजा करते हैं, उसमें पूजा नहीं ।
परन्तु वस्तुतः मूर्ति का उद्देश्य इससे कहीं व्यापक है, जैसा कि हम आगे देखेंगे।
इस विकास क्रम के आरंभ से ही मनुष्य, चित्र की भाँति, मूर्ति भी बनाने लग गया था। उस समय पृथ्वी पर वर्तमान हाथी का पूर्वज एक ऐसा हाथी होता था जो डीलडौल में इससे कहीं बड़ा था, उसके तन पर बड़े बड़े बाल होते थे और दाँत का अग्रभाग इतना सीधा न होकर घूमा हुआ होता था ।
इसका तुल्यकालीन था। अहेरी मनुष्य इसी के दाँत पर इसकी श्राकृति खोदकर छोड़ गया है, एवं इसी उपादान की, कोरकर बनाई गई, घोड़े की एक प्रतिमा भी छोड़ गया है जो आज-कल भी सुन्दर ही कही जायगी।
इसी प्रकार, किंतु उक्त समय से कई हजार वर्ष इधर, उसने उस समय टट्टुओं की आकृति भी अस्थि पर बनाई है। ये कृतियाँ मूर्तियों की प्रपितामही कही जा सकती हैं।
$३. ई० पू० ५वीं छठीं सहस्राब्दी से नागरिक सभ्यता का श्रारम्भ हो गया था। उस समय से मनुष्य मिट्टी, धातु, पत्थर और पत्थर पर गच ( पलस्तर ) की हुई पूरी डौल वाली मूर्तियाँ बनाने लग गया था ।
ताँबे, काँसे, सींग, अस्थि, हाथीदाँत और मिट्टी पर उभारकर, वा उभरी हुई रूपरेखाएँ बनाकर वा इन रेखाओं को खोदकर तरह तरह की श्राकृतिवाले टिकरे वा सिक्के की सी कोई चीज भी वह बनाता था ।
किंतु उन दिनों जो जातियाँ अपेक्षाकृत पिछड़ी हुई थीं वे भी मानव आकृति का भान करानेवाली ताँबे की पीटी हुई मोटी चादर की आकृतियाँ बनाती थीं जिनके वठ का कुछ अंश उठा हुआ होता था (देखिए फलक-१क) । ये श्राकृतियाँ पूजा के लिये बनाई गई जान पड़ती हैं।
मूर्ति बनाने में आरंभ से ही मनुष्य के मुख्यत: दो उद्देश्य रहे हैं। एक तो किसी स्मृति को वा अतीत को जीवित बनाए रखना, दूसरे अमूर्त को मूर्त रूप देना, अव्यक्त को व्यक्त ‘करना अर्थात् किसी भाव का आकार प्रदान करना । यदि हम सारे संसार की सब काल की प्रतिमाओं का विवेचन करें तो उनका
भारतीय मूर्ति-कला निर्माण बिना देश काल के बंधन के मुख्यतः इन्हीं दोनों प्रेरणाओं से पायेंगे ।
ऊपर जिन प्रारंभिक मूर्तियों की चर्चा हुई है उनमें भी इन्हीं प्रवृत्तियों का बीज मिलता है, अर्थात् हाथी और घोड़े की आकृतियाँ बनाकर मनुष्य ने अपने इर्द गिर्द के जंतु जगत् की और संभवतः उसके ऊपर अपने विजय की स्मृति सुरक्षित की है।
इसी प्रकार मनुष्य आकृति का इंगित करनेवाले ताँबे के टुकड़े बनाकर उसने अपनी अमूर्त अाध्यात्मिक भावना को आधिभौतिक रूप दिया है। देखा जाय तो मानवता का विकास वस्तुतः इन्हीं दो विशेषताओं पर अवलंबित है—अतीत का संरक्षण और अव्यक्त की मूर्त अभिव्यक्ति
मूर्ति-कला में ऐतिहासिक मूर्तियां पहले सिरे के अंतर्गत और धार्मिक तथा कलात्मक मूर्तियाँ दूसरे सिरे के अंतर्गत हैं।
वस्तुत: आध्यात्मिक भावना में-उपासना में जो अतींद्रिय, बुद्धिग्राह्य, आत्यंतिक सुख प्राप्त होता है वा रागात्मक अभिव्यक्ति में जो लोकोत्तर सुख है वह और कुछ नहीं निराकार को, बुद्धिग्राह्य का अर्थात् भाव का साकारता प्रदान करना है। दूसरे शब्दों में मूर्ति, चित्र, कविता वा संगीत के रूप में परिवर्तित करना है।
हमारे देश की मूर्तिकला ने मुख्यत: इसी दूसरे लक्ष्य की ओर अपना सारा ध्यान रखा है। भौतिक रूप का निदर्शन न करके तात्त्विक रूप का निदर्शन ही उसका मुख्य उद्ददेश्य है जैसा कि हम आगे देखेंगे ।
लेखक | – |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 198 |
PDF साइज़ | 45 MB |
Category | History |
Source/Credits | ignca.gov.in |
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