हिन्दू धर्म ग्रंथ – Hindu Dharm Book/Pustak Pdf Free Download
हिन्दू धर्म की सार्वभौमिकता
ऐतिहासिक युग के पूर्व के केवल तीन ही धर्म आज संसार में प्रचालत हैं-हिन्दू धर्म, पारसी धर्म और यहूदी धर्म। ये तीनों धर्म अनेकानेक प्रचण्ड आघातों के पश्चात् मी लुप्त न होकर आज भी जीवित हैं- यह उनकी आन्तरिक शक्ति का प्रमाण है।
पर जहाँ हम यह देखते हैं कि यहूदी धर्म ईसाई धर्म को नहीं पचा सका वरन् अपने सर्व-विजयी सन्तान-ईसाई धर्म द्वारा अपने जन्मस्थान से निर्वासित कर दिया गया, और केवल मुट्ठी भर पारसी ही अपने महान् धर्म की गाथा गाने के लिये अब अवशेष हैं,
जहाँ भारत में एक के बाद एक अनेको धर्म पंथों का उद्भव हुआ और वे पंथ वेदप्रणीत धर्म को जड़ से हिलाते से प्रतीत हुए, पर भयंकर भूकम्प के समय समुद्री किनारे की जलतरंगों के समान यह धर्म कुछ समय के लिये पीछे इसीलिये इट गया कि वह तत्पश्चात् इजार गुना अधिक बलशाली होकर सम्मुखस्य सब को डुब नेवाली बाढ के रूप में लौट आए और जब इन आगन्तुकों के विप्लवों का कोलाइल शान्त हो गया, तब ये सभी धर्म-सम्प्रदाय अपनी जन्म दात्री मूल हिन्दू धर्म की विराट काया द्वारा मानो शोषित होकर पचा लिये गए|
में विद्यमान हूँ और जब इस शरीर का पतन होगा, तब भी मं विधमान दूंगा ही, एवं इस शरीर-प्रहण के पूर्व भी में विवमान था। अत: आत्मा किसी पदार्थ से सृष्ट नहीं हुआ है, क्योंकि सृष्टि का अर्थ है
भिन्न भिन्न इव्यों का एकत्रीकरण और इस एकत्रीकरण का अर्थ होता है भविष्य में अवश्यम्भावी पृथक्करण । अतएव यदि आत्मा का सूजन हुआ, तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिये। इससे सिद्ध हो गया कि आत्मा का सूजन नहीं हुआ था,
वह कोई सूष्ट पदा्थ नहीं है। पुनश्च, कुछ लोग जन्म से ही मुखी होते है, पूर्ण स्वास्थ्य का आनंद मोगते हैं, उन्हें सुंदर शरीर, उत्साहपूर्ण मन और सभी आवश्यक सामग्रियाँ प्राप्त रहती हैं । अन्य कुछ लोग जन्म से ही दुःखी होते हैं,
किसी के हाथ पाव नहीं होते, तो कोई निर्बुद्ध होते हैं, और येन केन प्रकारेण अपने दुःखमय जीवन के दिन काटते है। ऐसा क्यों ? यदि ये सभी एक ही न्यायी और दयालु ईश्वर के उत्पन्न किये हों तो फिर उसने
एक को सुखी और दूसरे को दुःखी क्यों बनाया ! भगवान् ऐसा पक्षपाती क्यों है ? और ऐसा मानने से भी बात नहीं धर सकती कि जो इस वर्तमान जीवन में दुखी है, वे भावी जीवन में पूर्ण सुखी ही रहेंगे।
न्यायी और दयाल भगवान के राज्य में मनुष्य इस जीवन में भी दुःखी क्यों रहे ! दूसरी बात यह है कि सृष्टि-उत्पादक ईश्वर को मानने वाली सिटी में इस वैषम्य के लिये कोई कारण बताने का प्रयरन भी नहीं करते।
इससे तो केवल एक सर्वशक्तिमान स्वेच्छाचारी पुरुष का निष्र व्यवहार की प्रतीत होता है। परन्तु यह स्पष्ट ही है कि यह कल्पना तर्क विरुद है। अतएव यह स्वीकार करना ही होगा कि इस जन्म के पूर्व के ऐसे कारण होने ही चाहिये ।
लेखक | स्वामी विवेकानंद-Swami Vivekananda |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 143 |
Pdf साइज़ | 9.1 MB |
Category | प्रेरक(Inspirational) |
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