श्री हिंदी जैन कल्पसूत्र | Shri Hindi Jain Kalpsutra PDF In Hindi

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श्री हिंदी जैन कल्पसूत्र – Hindi Jain Kalpsutra PDF Free Download

श्रीकल्पसूत्र का हिन्दी अनुवाद

श्री १००८ श्रीमदुपाध्याय विनयविजयजी महाराज विरचित सुयोधिका टीका का हिन्दी भाषातर

[ श्री कल्पसूत्र जो सर्व शास्त्रों में शिरोमणि है और जिस के प्रति जैन के बच्चे २ की श्रद्धा और भक्ति है उस पर अनेक पूर्वपुरुपोंने अनेक टीकाये रची हैं जिनमें से उपाध्याय श्री विनयविजयजी म० की सुघोधिका नामकी टीका बहोत ही प्ररपात और आदरणीय है उसका यह अक्षरशः हिन्दी भाषातर किया जाता है।]

प्रथम व्याख्यान

मंगलाचरण

परम कल्याण के करनेवाले श्री जगदीश्वर अरिहन्त प्रभु को प्रणाम करके मैं बालबुद्धिगालों को उपकार करनेवाली ऐसी सुबोधिका नामकी कल्पसून की टीका करता हूं १ |

इस कल्पसूत्र पर निपुण बुद्धिवाले पुरुषों के लिए यद्यपि बहुतसी टीफायें हैं तथापि अल्पबुद्धिनाले मनुष्यों को बोध प्राप्त हो इस हेतु से यह टीका करने में मेरा प्रयत्न सफल है २ ।

यद्यपि सूर्य की किरणें सब मनुष्यों को वस्तु का बोध करनेवाली होती हैं, तथापि मोरे में रहे हुए मनुष्यों को तो तत्काल दीपिका ही उपकार करती है ३ ।

इस टीका में विशेष अर्थ नहीं किया, युक्तियाँ नहीं बतलाई और पद्म पाण्डित्य भी नहीं दिखलाया गया है परन्तु सिर्फ बालबुद्धि अभ्यासियों को बोध करनेवाली अर्थ व्याख्या ही की है ४ ।

यद्यपि में अल्प बुद्धिवाला ढोकर यह टीका रचता हूँ तथापि सत्पुरुषों का उपहासपात्र नहीं बनूंगा क्योंकि उन्हीं मत्पुरुषों का यह उपदेश है कि सप मनुष्यों को शुभ कार्य में यथाशक्ति प्रयत्न करना चाहिये ५ ।

पूर्वकाल में नवकल्प विहार करने के क्रम से प्राप्त हुए योग्य क्षेत्र में और आजकल परंपरासे गुरु की आज्ञा नाले क्षेत्र में चातुर्मास रहे हुए साधु कल्याण के निमित्त आनन्दपुर में सभा समक्षांचे वाद संघ के समक्ष |

यह देख नागकेतुने विचारा कि म जीते हुए सघ का और इन गगनस्पर्शी निनमदिरों का विनाश कैसे देख सकता हूँ? यों विचार कर के उसने एक ऊचे मंदिर के शिखर पर चढ़ कर उस शिला को धारण करने के लिए हाथ ऊँचा कर लिया।

इससे उसके उपतेन की शक्ति को सहन न करने के कारण शिला को सहरित कर वह व्यन्तर उसके चरणों में नमा, और उनके बच्चन से उसने राजा को भी निरुपद्रव किया।

एक दिन नागकेतु मिनेन्द्र पूजा कर रहा था उस वक्त पुष्प में रह हुए एक उदुलिक सर्पने उसको डक मारा, तथापि वह व्याकुल न होकर भावना में आरूढ हो गया।

शुद्ध भावना में तल्लीन होने से उसने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। फिर शासन देवताने उसे मुनिवेश अपर्ण किया। इस प्रकार नागकेतु की कथा सुन कर दूसरों को भी अहम तप करने में उद्यम करना चाहिये।

इस कल्पसून में मुख्यतया तीन बातें वाचने की हैं, उसके विषय में पुरिमचरिमाण कप्पो०’ यह गाया है। इसकी व्यारया यह है कि श्रीऋपमदेव और जीवीरप्रभु के साधुओं का यह कल्प-आधार है कि दृष्टि हो या न हो तथापि पर्युषण पर्व अवश्य करना ।

साथ ही यह भी ममझ लेना कि पर्युपणा पर्व में कल्पसून मी वाचना। एक तो यह आचार है और दूसरा यह वीरप्रभु के शासन में मगलरूप है। यदि कोई शका करे कि श्री वीरप्रस के शासन में क्यों कहा ?

श्री महावीर प्रभु का जीवनचरित्र ग्रीष्मऋतु का चौथा माम था, आठनों पक्ष था, अर्थात् आपाद माम का शुक्लपक्ष। उम आषाढ मास की उल्ला छठ के दिन अर्धरात्रि के समय बीस मागरोपम की लनी स्थितिवाले,

महान् विजयवाले पुष्पोचर नामक पुड- रीक अर्थात् श्वेत कमल के ममान श्रेष्ठ मदाविमान से देव सबधी आयु, मन, गतिनाम कर्म, स्थिति को पूर्ण कर के अन्तर रहित व्यर कर इसी जबूद्वीप में, जिसमें रूप, रस, गंधादि समस्त पदार्थों की हानि होती है ऐसे जनसर्पिणी काल में, सुपमसुषमा नामक चार कोटाकोटी मागरोपम प्रमाणवाला पहला आरा बीत जाने पर, सुपमा नामक तीन सागरोपम प्रमाणनाला दूसरा आरा बीत जाने पर, सुपमादु पमा नामक दो कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण- वाला सीसरा आरा पीत जाने पर और दु पमसुपमा नामक चौथा आरा बहुतसा व्यतीत होजाने पर अर्थात् कुछ शेष रहने पर, तात्पर्य कि बैतालीम हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण चौथे आर की स्थिति है, उसमें चौथे आरे के ७५-वर्ष और साढे आठ महिने शेष रहने पर भी वीरप्रभु का अवतार हुआ है।

पहचर अप की थी वीरप्रभु की आयु भी अत श्री वीरप्रभु के निर्वाण बाद तीन वर्ष और साढ़े आठ महीने व्यतीत होने पर चौथे आरे की समाप्ति होती है। इस से प्रथम जो ४२००० हजार वर्ष कहे हैं वे इफीस इफीस हजार वर्ष प्रमाणवाले पाँचवें और छठवें आरे सम्बन्धी ममझना चाहिय ।

लेखक आत्मानन्द – Aatmanand
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 226
PDF साइज़ 3.6 MB
Category धार्मिक(Religious)

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