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श्री जैन पंच प्रतिक्रमण सूत्र | Shri Panch Pratikraman Sutra sachitra PDF Free Download
पंच प्रतिक्रमण सूत्र
संसार में अनन्त जीव अपने २ कर्मों के अनुसार विभिन्न गतियों में नानाप्रकार के सुखदुःखों का अनुभव करते हुए प्रनादिकाल से भ्रमण कर रहे हैं ।
धुरणाक्षर न्याय से कभी कुछ श्रात्मा मानव जन्म प्राप्त करते हैं। उनमें से कतिपय प्राणी प्रार्यक्षेत्र उत्तम कुल दीर्घआयु आरो ग्यता तथा धर्मश्रवरणादि प्राप्त करके प्रात्म स्वरूप को समझ पाते हैं ।
स्वरूप का भान होने पर ही अनन्त श्रव्यावाघ सुख की वाञ्छा जागृत होती है और उसे प्राप्त करने के लिए धर्माराधना में प्रवृत्त होता है ।
जैसे क्षेत्र में वीजवपन करने से पूर्व क्षेत्र शुद्धि आवश्यक है, चित्र बनाने से पूर्व भित्तिका स्वच्छ होना अनिवार्य है; वैसे ही धर्मरूप वीजवपन या श्राम स्वरूप प्रकट करने से पूर्व प्रात्मशुद्धि श्रावश्यक है ।
श्रात्मशुद्धि के विभिन्न साधनों में आवश्यक क्रिया का स्थान सर्व प्रथम है। श्रावश्यक क्रिया का अर्थ ही अवश्य करने योग्य क्रिया है ।
विश्व के प्रायः सभी धर्मो-मत मतान्तरों में कुछ ऐसी क्रियायें हैं जो समाज के सदस्यों के लिए अनिवार्य नहीं तो श्रावश्यक तो मानी हो जाती हैं।
जैसे-वैदिक धर्मावलम्बियों के लिए सन्ध्योपासना, मुसलमानों के लिए नमाज, क्रिश्चियनों के लिए प्रार्थना बौद्ध धर्मानुयायी भी
अपने मान्य त्रिपिटकादि ग्रन्थों में से कुछ सूत्रों का नित्य नियमित पाठ करते हैं जो हमारी श्रावश्यक क्रिया से तुलना करने पर मिलते-जुलते ते हैं।
ये सब पाठ यहां देने से भूमिका बड़ी हो जाती; अतः नहीं दिये गये जिन्हें जिज्ञासा हो वे उक्त धर्मावलम्बियों के ग्रन्थों में देख सकते हैं और उन २ धर्मो त व्यक्तियों से जान सकते हैं ।
जैन समाज में प्रावश्यक क्रिया साधु साध्वियों के लिए प्रतिदिन प्रातः सायं अनिवार्य रूप से करनी श्रावश्यक है।
संसार में प्रनन््त जीव अपने २ कर्मो के अनुसार विभिन्न गतियों
में तानाप्रकार के चुखदुःखों का श्रनुभव करते हुए श्रनादिकाल से अमण कर रहे हैं। धुणाक्षर न्याय से कभी कुछ श्रात्मा मानव जन्म प्राप्त करते हूँ । उनमें से कतिपय प्राणी श्रार्यक्षेत्र उत्तम कुल दीर्घश्रायु आरोग्यता तथा घर्मश्रवरणादि प्राप्त करके श्रात्म स्वदप को समझ पति हैं स्वरूप का भान होने पर ही अनन्त श्रव्यावाघ सुख वी वाब्छा जागृत होती है भौर उसे प्राप्त करने के लिए धर्माराषना में प्रवृत्त होता है । जेंसे क्षेत्र में वीजवपन करने से पूर्व क्षेत्र शुद्धि भ्रावश्यक है, चित्र बनाने से पूर्व भित्तिका स्वच्छ होना श्रनिवार्य है; वेसे ही घर्महप वीजवपन या श्रात्म स्वहप प्रकट करने से पुर्व झात्मशुद्धि झावश्यक
प्रात्मशुद्धि के विभिन्न साधनों में श्रावश्यक क्रिया का स्थान सर्वप्रथम है। श्रावश्यक क्रिया का अर्थ ही अवश्य करने योग्य क्रिया है ।
विश्व के प्रायः सभी घर्मो-मत मतान््तरों में कुछ ऐसी क्रियायें हैं जो समाज के सदस्यों के लिए श्रनिवार्य नहों तो श्रावश्यक तो मानी ही जाती हैं । जेसे-वेदिक घर्मावलम्बियों के लिए सन्ध्योपासना, मुसलमानों के लिए नमाज, क्रिश्चियनों के लिए प्रार्थना |
वौद्ध धर्मानुयायी भी अपने मान्य त्रिपिटकादि ग्रन्यों में से कुछ सुत्रों का नित्य नियमित पाठ करते हैं जो हमारी श्रावश्यक क्रिया से तुलना करने पर मिलते-जुलते से हैं ।
ये सब पाठ यहाँ देने से भूमिका बड़ी हो जाती; श्रतः नहीं दिये गये जिन्हें जिज्ञासा हो वे उक्त धर्मावलम्बियों के ग्रन्थों में देख सकते हैं और उन २ घर्मो ऐं, त व्यकवितयों से जान सकते हैं।
जेन समाज में श्रावश्यक क्रिया साधु साध्वियों के लिए प्रतिदिन प्रातः साय॑ अनिवार्य रूप से करनी श्रावध्यक है। शास्त्रों में विधान है
लेखक | आनंद सागर जी – Anand Sagar Ji |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 530 |
PDF साइज़ | 10.8 MB |
Category | धार्मिक(Religious) |
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