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कंप्यूटर टाइपिंग हिंदी में – Computer Typing PDF Free Download
हिंदी कंप्यूटर टाइपिंग
भारतीय संस्कृति को वश्य स्तर पर पहचान दिलाने वाले महापुरुष स्वामी ववेकानंद जी का जन्म 12 जनवरी 1863 को सूर्योदय से 6 मनट पूर्व 6 बजकर 33 मनट 33 सेकेन्ड पर हुआ।
भुवनेश्वरी देवी के वश्य वजयी पुत्र का स्वागत मंगल शंख बजाकर मंगल ध्वनी से कया गया। ऐसी महान वभूती के जन्म से भारत माता भी गौरवान्वित हुई।
बालक की आकृति एवं रूप बहुत कुछ उनके सन्यासी पतामह दुर्गादास की तरह था।
परिवार के लोगों ने बालक का नाम दुर्गादास रखने की इच्छा प्रकट की, कन्तु माता द्वारा देखे स्वपन के आधार पर बालक का नाम वीरेश्वर रखा गया प्यार से लोग बिले कह कर बुलाते थे ।
हिन्दू मान्यता के अनुसार संतान के दो नाम होते हैं, एक राशी का एवं दूसरा जन साधारण में प्रच लत नाम तो अन्नप्रासन के शुभ अवसर पर बालक का नाम नरेन्द्र नाथ रखा गया ।
नरेन्द्र की बुद्धी बचपन से ही तेज थी।
बचपन में नरेन्द्र बहुत नटखट थे भय, फटकार या धमकी का असर उन पर नहीं होता था ।
तो माता भुवनेश्वरी देवी ने अदभुत उपाय सोचा, नरेन्द्र का अ शष्ट आचरण जब बढ जाता तो वो शव शव कह कर उनके ऊपर जल डाल देती ।
बालक नरेन्द्र एकदम शान्त हो जाते। इसमें संदेह नही की बालक नरेन्द्र शव का ही रूप थे माँ के मुहँ से रामायण महाभारत के कस्से सुनना नरेन्द्र को बहुत अच्छा लगता था बालयावस्था में नरेन्द्र नाथ को गाड़ी पर घूमना बहुत पसन्द था।
जब कोई पूछता बड़े हो कर क्या बनोगे तो मासू मयत से कहते कोचवान बनूँगा ।
पाश्चात्य सभ्यता में यश्वास रखने वाले पता वश्वनाथ दत अपने पुत्र को अंग्रेजी शक्षा देकर पाश्चात्य सभ्यता में रंगना चाहते थे।
कन्तु नियती ने तो कुछ खास प्रयोजन हेतु बालक की अवतरित कया था ।
नरेन्द्र को बचपन से ही परमात्मा को पाने की चाह थी।
डेकार्ट का अध्याद डार्बन का वकासवाद, स्पेंसर के अद्वैतवाद को सुनकर नरेन्द्रनाथ सत्य को पाने का लये व्याकुल हो गये।
अपने इसी उद्देश्य की पूर्ती हेतु ग्रहमसमाज में गये कन्तु वहाँ उनका चत शान्त न हुआ।
रामकृष्ण परमहंस की तारीफ सुनकर नरेन्द्र उनसे तर्क के उद्देश्य से उनके पास गये कन्तु उनके वचारों से प्रमा यत हो कर उन्हें गुरु मान लया ।
परमहसं की कृपा से उन्हे आत्म साक्षात्कार हुआ नरेन्द्र परमहंस के प्रय शयों में से सर्वोपरि थे।
25 वर्ष की उम्र में नरेन्द्र ने 1 गेरुवावस्त्र धारण कर सन्यास ले लया और वश्व भ्रमण को निकन पड़े।
1893 में शकागो यश्य धर्म परिषद में भारत के प्रतीनिधी बनकर गये कन्तु उस समय युरोप में भारतीयों को हीन दृष्टी से देखते थे।
उगते सूरज को कौन रोक पाया है वहाँ लोगों के वरोध के बावजूद एक प्रोफेसर के प्रयास से स्वामी जी को बोलने का अवसर मला।
स्वामी जी ने बहिनों एवं भाईयों कहकर श्रोताओं को संबो धत कया।
स्वामी जी के मुख से ये शब्द सुनकर करतल ध्वनी से उनका स्वागत हुआ ।
श्रोता उनको मंत्र मुग्ध सुनते रहे निर्धारित समय कब बीत गया पता ही न चना ।
अध्यक्ष गबन्स के अनुरोध पर स्वामी जी आगे बोलना शुरू कये तथा । 20 मनट से अधिक बोने उनसे अभभूत हो हजारों लोग उनके शय्य बन गये ।
Author | – |
Language | English |
No. of Pages | 22 |
PDF Size | 3 MB |
Category | Course |
Source/Credits | drive.google.com |
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