गायत्री महाविज्ञान भाग 1 और 2 | Gayatri Mahavigyan PDF In Hindi

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गायत्री महाविज्ञान – Gayatri Mahavigyan PDF Free Download

गायत्री महाविज्ञान

अनादि परमात्म तत्व ब्रह्म से यह सब कुछ उत्पत्र हुआ सृष्टि उत्पन्न करने का विचार उठते ही ब्रह्म में एक स्कुरणा उत्पन्न हुई, जिसका नाम है-शक्ति । शक्ति के द्वारा दो प्रकार की सृष्टि उत्पन्न हुई-

एक जड़, दुसरी चैतन्य । जड़ सृष्टि का संचालन करने वाली शक्ति ‘प्रकृति’ और चैतन्य सृष्टि का संचालन करने वाली शक्ति का नाम ‘सावित्रो है।पुराणों में वर्णन मिलता है

कि सृष्टि के आदिकाल में भगवान् की नाभि में से बमल उत्पन्न हुआ कमल के पुष में से ब्रह्मा हुए ब्रह्मा से सावित्री ई. सावित्री और ब्रह्मा के संयोग से चारों वेद उत्पन्न हुए ।

वेद से समस्त प्रकार के ज्ञानों का उद्भव हुआ। तदनन्तर ब्रह्माजी ने पंचभौतिक सृष्टि की रचना की। इस आतंकारिक गाथा का रहस्य यह है- जि्िंप निर्विकार,

निर्विकल्प परमात्म तत्व की नाभि में से केन्द्र भूमि में से-अनाकरण में से कमल उत्पन्न हुआ और वह पुष्प की तरह खिल गया । श्रुति ने कहा कि सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा को इच्छा हुई कि एकोह बहुस्याम् में एक से बहुत हो जाऊँ।

यह उसकी इच्छा स्कुरणा नाभि देश में से निकल कर स्मुरित हुई अर्थात् कमल की लतिका उत्पन्न हुई और उसकी कती खिल गयी।इस कमल पुष्प पर ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं।

ये ब्रह्मा सृष्टि-निर्माण की त्रिदेव शक्ति का प्रथम अशरे आगे चलकर यह देवी शक्ति उत्पत्ति स्थिति और नाश का कार्य करती हुई ब्रह्मा, विष्णु महेश के रूप में दृष्टिगोजर होती है।

आरम्भ में कमल के पुष्ण पर केवल ब्रह्माजी ही पकट होते है क्योंकि सर्वप्रथम उत्पत्र करने वाली शान्ति की आवश्यकता हुई। अब ब्रह्माजी का कार्य आरम्भ होता है।

उन यन्त्रों की स्थापना, सुरक्षा और निर्माण है के लिए हर समय काम जारी रखना पड़ता है तथा उनका स्थान परिवर्तन तो और भी कठिन होता है।

यह सब झंझट भारतीय योग-विज्ञान के विज्ञानवेत्ताओं के सामने नहीं थे वे बिना किसी यन्त्र की सहायता के बिना संचालक, विद्युत्, पेट्रोल आदि के केवल अपने शरीर के शक्ति केन्द्रों का सम्बन्ध सूक्ष्म प्रकृति से स्थापित करके ऐसे आश्चर्यजनक कार्य कर लेते थे, जिनकी सम्भावना तक को आज के भौतिक विज्ञानी समझने में समर्थ नहीं हो पा रहे हैं।

महाभारत और लंका युद्ध में जो अस्त्र-शस्त्र व्यवहत हुए थे, उनमें से बहुत थोड़ों का धुंधला रूप अभी सामने आया है। रडार, गैस बम, अश्रु-बम, रोग कीटाणु बम, परमाणु बम, मृत्यु किरण आदि का धुंधला चित्र अभी तैयार हो पाया है।

प्राचीनकाल में मोहक शस्त्र, ब्रह्मपाश, नागपाश, वरुणास्त्र, आग्नेय बाण, शत्रु को मारकर तरकस में लौट आने वाले बाण आदि व्यवहत होते थे, शब्द वेध का प्रचलन था ऐसे अस्त्र-शस्त्र किन्हीं कीमती मशीनों से नहीं, मन्त्र बल से चलाये जाते थे, जो शत्रु को जहाँ भी वह छिपा हो, ढूंढकर उसका संहार करते थे।

लंका में बैठा हुआ रावण और अमेरिका में बैठा हुआ अहिरावण आपस में भली प्रकार वार्तालाप करते थे, उन्हें किसी रेडियो यन्त्र या ट्रांसमीटर की जरूरत नहीं थी। विमान बिना पेट्रोल के उड़ते थे।

अष्ट सिद्धि और नव-निधि का योग शास्त्रों में जगह-जगह पर वर्णन है।

अग्नि में प्रवेश करना, जल पर चलना, वायु के समान तेज दौड़ना, अदृश्य हो जाना, मनुष्य से पशु-पक्षी और पशु-पक्षी से मनुष्य का शरीर बदल लेना, शरीर को बहुत छोटा या बड़ा बहुत हल्का या भारी बना लेना, शाप से अनिष्ट उत्पन्न कर देना, वरदानों से उत्तम लाभों की प्राप्ति, मृत्यु को रोक लेना, पुत्रेष्टि यज्ञ, भविष्य का ज्ञान, दूसरों के अन्तर की पहचान, क्षण भर में यथेष्ट धन, ऋतु नगर, जीव-जन्तु गण, दानव आदि उत्पन्न कर लेना, समस्त ब्रह्माण्ड की हलचलों से परिचित होना, किसी वस्तु का रूपान्तर कर देना, भूख, प्यास, नींद, सर्दी-गर्मी पर विजय, आकाश में उड़ना आदि अनेकों आश्चर्य भरे कार्य केवल मन्त्र बल से, योगशक्ति से, अध्यात्म विज्ञान से होते थे और उन वैज्ञानिक प्रयोजनों के लिये किसी प्रकार की मशीन, पेट्रोल, बिजली आदि की जरूरत न पड़ती थी।

यह कार्य शारीरिक विद्युत् और प्रकृति के सूक्ष्म प्रवाह का सम्बन्ध स्थापित कर लेने पर बड़ी आसानी से हो जाते थे। यह भारतीय विज्ञान था, जिसका आधार था-साधना।

साधना द्वारा केवल तम तत्त्व से संबंध रखने वाले उपरोक्त प्रकार के भौतिक चमत्कार ही नहीं होते वरन् रज और सत् क्षेत्र के लाभ एवं आनन्द भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त किये जा सकते हैं।

हानि, शोक, वियोग, आपत्ति, रोग, आक्रमण, विरोध, आघात आदि की विपन्न परिस्थितियों में पड़कर जहाँ साधारण मनोभूमि के लोग मृत्यु तुल्य मानसिक कष्ट पाते हैं, वहाँ आत्म-शक्तियों के उपयोग की विद्या जानने वाला व्यक्ति विवेक, ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा और ईश्वर विश्वास के आधार पर इन कठिनाइयों को हँसते-हँसते आसानी से काट लेता है और बुरी अथवा साधारण परिस्थितियों में भी अपने आनन्द को बढ़ाने का मार्ग ढूँढ़ निकालता है।

वह जीवन को इतनी मस्ती, प्रफुल्लता और मजेदारी के साथ बिताता है, जैसा कि बेचारे करोड़पतियों को भी नसीब नहीं हो सकता।

जिसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य आत्मबल के कारण ठीक बना हुआ है, उसे बड़े अमीरों से भी अधिक आनन्दमय जीवन बिताने का सौभाग्य अनायास ही प्राप्त हो जाता है।

रज शक्ति का उपभोग जानने का यह लाभ भौतिक विज्ञान द्वारा मिलने वाले लाभों की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है।

‘सत्’ तत्त्व के लाभों का वर्णन करना तो लेखनी और वाणी दोनों की ही शक्ति के बाहर है।

ईश्वरीय दिव्य तत्त्वों की जब आत्मा में वृद्धि होती है तो दया, करुणा, प्रेम, मैत्री, त्याग, संतोष, शान्ति, सेवा-भाव, आत्मीयता, सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, संयम, नम्रता, पवित्रता, श्रमशीलता, धर्मपरायणता आदि सद्गुणों की मात्रा दिन-दिन बड़ी तेजी से बढ़ती जाती है।

फलस्वरूप संसार में उसके लिए प्रशंसा, कृतज्ञता, प्रत्युपकार, श्रद्धा, सहायता, सम्मान के भाव बढ़ते हैं और उसे प्रत्युपकार से सन्तुष्ट करते रहते हैं।

इसके अतिरिक्त यह सद्गुण स्वयं इतने मधुर हैं कि जिस हृदय में इनका निवास होता है, वहीं आत्म-संतोष की शीतल निर्झरिणी सदा बहती रहती है। ऐसे लोग

लेखक श्री राम शर्मा-Shri Ram Sharma
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 220
Pdf साइज़56 MB,112 MB
Categoryधार्मिक(Religious)

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