धम्मपद संस्कृत – The Dhammapada Hindi Book Pdf Free Download
धम्मपद संस्कृत श्लोक और हिंदी अर्थ सहित
भगवान बुद्ध की अमर वाणी ‘धम्मपद’ का भाषानुवाद आपके समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष हो रहा है। विश्वभर के लोक प्रिय ग्रंथों में इसका बहुत ऊंचा स्थान है।
विपश्यना के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ इसकी लोक प्रियता और भी बढ़ती चली जायगी, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं है।
कल्याणमित्र विपश्यनाचार्य श्री सत्यनारायण गोयन्काजी दस-दिवसीय विपश्यना शिविरों में साधना पक्ष को समझाने के लिए इसमें से बहुत से उद्धरण देते हैं।
इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि आपके लिए इस ग्रंथ का कि तना महत्त्व है। ध्यान से देखा जाय तो इसकी एक-एकगाथा साधना पक्ष को मजबूत करने वाली और अगाध प्रेरणा जगाने वाली है। ‘धम्मपद’ में समूची बुद्धवाणी की कुंजी भी उपलब्ध है.
“यथापि रुचिरं पुण्फं वण्णवन्तं अगन्धकं । एवं सुभासिता वाचा, अफ ला होति अकु ब्बतो ॥ (गाया ५१)
“यथापि रुचिरं पुष्पं, वण्णवन्तं सुगन्धकं एवं सुभासिता वाचा, सफ ला होति कु व्वतो ॥” (गाथा ५२)
“जैसे कोई पुष्प सुंदर और वर्णयुक्त होने पर भी गंधरहित हो, वैसे ही अच्छी क ही हुई (बुद्ध) वाणी होती है फलरहित, यदि कोईतदनुसार (आचरण) न करे ।
“जैसे कोई पुण्प सुंदर और वर्णयुक्त हो और सुगंध वाला हो, वैसे ही अच्छी कही हुई (बुद्ध) बाणी होती है फलसहित यदि कोई तदनुसार (आचरण) करने वाला हो।”
इस प्रकार बुद्धवाणी फलप्रद तभी होती है जब कोई इसके अनुसार आचरण करे. इसे अनुभूति पर उतारे। यही बुद्धवाणी की कुंजी है।
१. यमक वग्गो
१. मनोपुवामा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया। मनसा चे पट्टेन, भासति वा करोति वा ततो नं दुक्खमन्वेति चक्कं व वहतो पदं ॥
मन सभी धर्मों (प्रवृत्तियों) का अगुआ है, मन ही प्रधान है, सभी धर्म मनोमव हैं। जब कोई व्यक्ति अपने मन को मेला करके कोई वाणी बोलता है, अथवा शरीर से कोई कर्मकरता है, तब दुख उसके पीछे ऐसे हो लेता है, जैसे गाड़ी के चक्के बैल के पैरों के पीछे-पीछे हो लेते हैं।
२. मनोपुव्यया धम्मा मनोसेा मनोमया। मनसा चे पसन्नेन, भासति वा करोति वा ततो ने सुखमन्येति डापाव अनपायिनी॥
मन सभी धर्मों (प्रवृत्तियों) का अगुआ है, मन ही प्रधान है, सभी धर्म मनोमय हैं। जब कोई व्यक्ति अपने मन कोउजला रख कर कोईवाणी बोलता है, अथवा शरीर से कोईक करता तब उसके पीछे ऐसे हो लेता है जैसे क भी संग न होने वाली छाया संग-संग चलने लगती है।
३. अक्कोच्छि मं अवधि मं, अजिनि मं अहासि मे । ये च तं उपनव्हन्ति, वेरं तेसं न सम्मति ॥
‘मुझे कोसा, ‘मुझे मारा ‘मुझे ‘मुझे लूटा जो मन में ऐसी गां बांधते रहते हैं, उनका वैर शांत नहीं होता।
४. अबको अवधि में, अजिनि में अहासि मे। ये च तं नुपनय्हन्ति, वेरं तेसूपसम्मति ॥
-कोच्चि में अवधि में मणिनि मं अहासि मे ।ये तं न उपनप्हन्ति केरं तेसूगसम्मति ॥ ४॥ (अकोशीय मां अवधीत् मां अवैपीय् मां मे ।थे तय मोपनकम्ति वैरं तेपुपकान्यति ॥en) निषाद-ुे गाडी बिया’ ( पैसा) ओो ( नमें) नदीं रमये |
उनका वैर शान्त हो जाता है। मावती () काली (पनिक्षनी)५-न हि बेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचन । असून च सम्मन्ति एस धम्मो सनन्तनो ॥ ५॥ (म दि वैरेण वैराणि शाम्यन्तीइ सदाचन । अवैरेण च शाम्यन्ति, एप धर्मः सनातनः ॥ ५॥ )
अनुवाद-यहाँ ( ससार में ) वैरसे वैर कमी दास्त नहीं होता, जवैर से दी शान्त होता है, यही सनातन धर्म (=नियम )है। আषी (जर्मन) कोसम्पण गाणू-परे च न विजानन्ति मयमेत्य यमामसे ।
ये च तस्य विज्ञानन्ति सतो सम्मन्ति मेगा ॥ १॥ (परे च न विजानन्ति वयमत्र यंस्यामा । ये च तत्र विजागन्ति ततः शाम्यन्ति मेधगाः ॥ ६ ॥ )अनुवाद- न्यू (धाजग) नहीं जानते, कि हम इस ( संसार ) से जानेवाले हैं।
जो इसे जानते है, फिर ( जाने ) मनके (सभी विकार ) शान्त हो जाते हैं ।मुमाइपस्सिन्तं इन्द्रिपेष्स आर्दुतं । भोजनम्हि अपत्तन सीतं हीनपीरियं । तं वे पसहति मारो वातो रुक्ख व बुन्नलं ॥७॥
(शुभमनुपश्यन्तै विएण्त इन्द्रियेषु असंवृतम् । भोजनेऽमाध कुसीदं होनवीर्यम् ।तं वै प्रसति मारो वांतो वृक्षमिव बुर्ज्यव्भ् ॥ ७ ॥)अनुवाद–( को ) ुम ही शुम छऐेखते बिदरता है, एन्विरयोंमें संयम म फरमेपाला होता है,
जनमें मात्राको नहीं जानता और उद्योगहीन होता है, उसे मार ( प्रमकी बुआृचियाँ) ( बैसे ही ) पीड़त करता है, बैसे हुर्गछ मुझको दवा।ৎ-अुभाउुपस्सिं क्हिन्चं इन्द्रियेमु सुसंबुतं ।
मोजनम्हि च मशन्बू’ सदं आरद्धवोरियं । तं वे नष्पसहति मारो वातो सेलं ‘व पन्वतं ॥८ ॥(अमुभमनुपश्यन्त विदरन्तं इन्द्रियेषु सुसंवृतम् । मोजने व मात्रास’ शमं आरव्यवीर्यम् । तं वैन प्रसहते मारो वाता शैळमिष पर्वतम् ॥ ८ ॥ )
लेखक | त्रिपिटकाचार्य-Tripitakachary |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 213 |
Pdf साइज़ | 3.3 MB |
Category | साहित्य(Literature) |
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