चर्म रोग चिकित्सा | Skin Diseases PDF In Hindi

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चर्म रोग चिकित्सा -Skin Diseases PDF Free Download

चर्म रोग चिकित्सा

रासायनिक प्रभाव डालती है। इनका उपयोग प्रत्यक्ष (त्वचा, पेशियो, सधियो पर) या अप्रत्यक्ष (मेरु पथो, अनुकपी नर्वकवंधो आदि पर) होता है। चर्मलोचन में पगस्वनियो का प्रत्यक्ष स्थानिक उपयोग स्वेदग्रथिशोय, स्थानाबद्ध खुजली, परिसीमित नार्वचर्मशोय, खर्जुक सचिरोग तथा कुपोषज व्रणो की चिकित्सा में हांता है।

| आशिक अप्रत्यक्ष उपयोग निम्न रोगो में सुसकेतित है-चिरकालिक पुनरावर्ती | पित्ती, हर तरह की खुजलिया, विसरित नार्वचर्भशोधथ, विसरित कठचर्मता परास्वनियो से औषधो (विटामिन ए, हाइड्रोकोर्टीजोन इमल्शन आदि) का आधान स्वनप्रवहन कहलाता है।

इस तरह की चिकित्सा हथेलियों और तलवों के खर्जुक्लेश, नार्वचर्मशोथ के परिसीमित रूपो तथा अतीव्र चरण पर स्थानावद्ध दिनाइ मे लाभकर होती है।प्रकाश-चिकित्सा-इसमे मुख्यतः सौर स्पेक्ट्रम की लघुतरगी किरणों का उपयोग होता है

(सौर-चिकित्सा), कृत्रिम प्रकाश-स्रोतो से उत्सर्जित किरणो, विशेषकर पराबैंगनी किरणो का उपयोग फोटो-चिकित्सा कहलाता है। सौर-चिकित्सा-सूर्य की किरणी ऊर्जा में पराबैगनी किरणो का स्पेक्ट्रम भीआता है, जो शरीर में जीवरासायनिक प्रक्रियाओं को प्रोत्साहित करता है।

लेकिन यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि पराबैंगनी किरणे डेनु अम्ल (DNA) का सश्लेषण दमित करके ऊतको का लसीका कार्य दमित कर देती हैं। सौर किरणी ऊर्जा के अन्य अवयव, जैसे अवरक्त एव दृश्य किरणें शरीर को पराबैंगनी किरणो के प्रति सवेदनशील बनाती है,

जिससे शरीर पर उसका प्रभाव वढ़ जाता है। | चिकित्सा के लिये सूर्य-स्नान (सूर्यातपन) की अनेक रीतिया है, जो मौर-चिकित्सा प्रलिखित करने के उद्देश्य, चर्म मे रोग-प्रक्रियाओं की तीव्रता तथा रो पहल जैवलुगक अव्वात् परावैगनी किन्ने के प्रति व्यक्तिगत सविता की अवसीमा (निम्नतम मात्रा) निर्धारित की जाती है

जैवखुगक निश्चित दूरी पर स्थित लैप द्वारा ललामी उत्पन्न होने के समय (मिनटो) की इकाई में नापी जाती है। इस समय मे पगवैगनी किरणों की जी मात्रा प्राप्त होती है (ललामी उत्पत्र करने के लिये), उसे ललामिक खुराक कहते है भिन्न चमरोगों में त्वचा के भित्र सेंत्रो के विकिरणन के लिये जैवखुराको की संख्या मित्र होती है।

चर्म-अनाटोमी (8070 »72/0779). आदमी का चर्म (चमड़ी, ०५४४) उसके शरीर का बाहरी आवरण है, वह शरीर के प्राकृतिक छेदो-मुहठ, नाक, मूत्र-जननेंद्रिय और गुदा के पास पहुंचकर श्लेषमल झिल्ली (॥//0प5 प्राणआश0श्षा८) के साथ मिल जाता है।

वयस्को मे चर्म की सतह .5 से श॥१ तक होती है, जबकि मोटाई (अधोचार्म वसा (57007/97९०7०$ 4) को छोड़कर मिलीमीटर के कुछ अशो से लेकर (पलक और बाह्य श्रवण-मार्ग पर) 4णाए तक (हथेलियो और तलवो पर) होती है।

अधोचार्म वसा की भी मोटाई जगह-जगह पर काफी भिन्न होती है।

कुछ जगहों पर वह होती ही नही है और कुछ जगहों पर (जैसे मोटे आदमी के पेट और नितबो पर) उसकी मोटाई कई सेंटीमीटर तक पहुँच सकती है।

वयस्क मे अकेले चर्म का द्रव्यमान (9955) पूरे शरीर के द्रव्यमान का लगभग 5 प्रतिशत अश होता है, जबकि अधोचार्म वसा के साथ करीब 6 से ॥7 7 प्रतिशत होता है।

चर्म की सतह (त्वचा) पर अनेक खाचे (ख़ात, खातिकाएं), सलवटें और अवनमन (गड़ढे) पाये जाते है, वह तीकोण और रोबवत (7#078900) क्षेत्रो के एक जटिल क्रम (चटाई) के रूप में दिखती है।

चेहरे की झुर्रिया, हथेली, तलवे और फोते (अडकोष) की सल्लनवर्टे चर्म पर स्थूल खातिकाएं हैं। हथेली और तलबे पर एक-दूसरे के समानातर चलने वाली मेड़े और खातिकाए तरह-तरह की आकृतिया

बनाती हैं इनका नमूना हर आदमी क लिय अपना व्यक्तिगत होता ह जा आटमा को पहचानने क॑ लिये एक विश्वस्त चिह्न ” रगल्ा की छाय के अध्ययन ग्गल्ा दर्शन या डाक्टिनोस्कोपी मे इसी का उपयोग होता है ।)

त्वचा की ऊपरी झलक चटाई की वुनावट जैसी होती है।

उसका अपना विशिष्ट रग होता है, जो उसे बनाने वाले ऊतकों के रग, शगी एव कणमय परतला की मोटाई, चर्म के भीतर दिखन वाली रक्‍्त-कुमियों (90000 ४९८९५८।५) आर मेलानिन नामक वर्णक की उपस्थिति पर निर्भर करता है।

त्यचा का रग बदल भी सकता है, क्योकि चर्म मे उपस्थित वर्णक की मात्रा वाह्मय और आतर घटकों के प्रभाव से वढती-धघटती रहती है ।

लचा का अधिकाश क्षेत्र वालो (लोगो) से आच्छाटित रहता है।

लोमगहित क्षेत्र निध्न है-होंठ (सिदूरी सीमा, +शाध्रा॥07 00शा06८१), हथेलिया और तलते (उगलियो समेत), लिगपूग (2]875 9८705), वृह्त भगोप्ठ की आतर सतह आर लघु भगोष्ठ (882 2704 गो एप0886 4] [98) |

त्वचा में मुश्किल से टिखने वाले रघध्च होते है, जो स्वेद-मार्य और वपाल ग्रथियों (89०४०2५७ 8!4705) के द्वार ढै। कुछ बीमारियों मे (जैसे वपास्राव, 52007 068 मे ये रश्त नगी आखो से भी दिखने लगते है।

उगलियों के अंतिम खड़ो की पश्च सतह पर नख होते हैं।

चर्म का ऊतलोचन (डा ग४/0099) भववृत्ति (७॥०0४ट०८०४8४) मे चर्म दो अंकुरदायी स्थलो से विकसित होता ह-

() बाह्य भ्रूणचर्म, जिसे बहिचर्म (८७४४००७०॥), बहिरंकुर (८०४०४७|७४५) या अध्यंकुर (धएा048) कहते है; यह अधिचर्म में पर्णित होता है।

(9) मध्य अणचम (76807) या मध्याकर (77850988), जिससे चर्म की दो परते विकसित होती है-सुचर्म (वास्तविक चर्म, 66503) या मध्य परत ओर अधोचार्म वसा या अवचर्भ (सवसे गहरी चर्म-परत)।

अधिचर्म और सुचर्म के बीच की सीमा (काट या अनुच्छेद पर) लहरदार रेखा के रूप में होती है, क्योकि सुचर्म की सतह पर विशेष प्रकार के स्तभाकार उभार (चुचिकाए या पिटिकाएं, 9७22,) यने रहते है, जिनके बीच का अवकाश उपकलीय प्रवर्धो (८०/!४९]४४ (700८55८४) से भरा रहता है।

लेखक डिम्पल शाह- Dimple Shah
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 150
Pdf साइज़6.7 MB
Categoryआयुर्वेद(Ayurveda)

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