भर्तृहरि नीति शतक श्लोक अर्थ सहित – Bhartrihari Neeti Shatak Book PDF Free Download

भर्तृहरि का नीति शतकम
एक आलङ्कारिक का कथन है.-‘ सत्काव्य यशस्कर, अर्थ कर व्यवहार ज्ञानदाता और अमङ्गलहर होने हैं सत्कविता मावी वनिता की भाँति परम शान्तिदायिनी और हितोपदेशिनी होती है।”
कवि का यह वाक्य संस्कृत के चाहे जिस काव्य की प्रशंसा में निकला हो; पर यह महाराज भर्तृहरि कृत ‘नीति-शतक” पर पूर्ण रूप से घटित होता है क्योंकि उसके पढ़ने से मनुष्य एक अच्छा नीतिमान् हो जाता है और नीतिमान व्यक्ति ही कीर्त्ति, धन और प्रशंसा के अधिकारी होते है।
नीति-शतक सचमुच ही एक अपूर्व ग्रन्थ है। हम जब कभी ध्यान के साथ उसका पारायण करने बैठने हैं, तभी ऐसा मालूम होता है; मानो संसार में जो कुछ भी महान् है, जो सुन्दर है और जो कुछ भी नवीन. निष्पाप, निर्मल और मनोहर है,
वह सब एकत्र संकलन करके जिस स्थान पर जिसका समा कुछ भी वेश करने से उसकी सुन्दरता और निर्मलता और भी बढ़ जा सकती है, वह उसी स्थान पर उसी ढङ्ग से बैठाया “नीति-शतक” में यद्यपि सौ श्लोक है, किन्तु इन सौ श्लोकों मे जो कुछ भी कहा गया है. उसकी तुलना अन्य देशो के सौ नीति ग्रन्थ भी नहीं कर सकते ।
संसार मे रह कर, जीवन मे जय पाने के लिये, नीतिमान वनाने की नितान्त आवश्यकता है । नीति से हम, अकेले होने पर भी, अनन्त सेना को परास्त कर सकते है और एक स्थान पर बैठे-बैठे समस्त भूमण्डल पर शामन कर सकते हैं।
जो व्यक्ति जितना अच्छा नीतिज्ञ है, वह उतना ही दुर्जय है। सारांश यह कि, संसार की जटिल-से-जटिल समस्याओं का निराकरण एक मात्र नीति द्वारा ही हो सकता है।
महात्मा शुक्र ने बहुत ही ठीक कहा है, व्याकरण से शब्द और अर्थ का ज्ञान होता है. न्याय और तर्कशास्त्र से जगत् के पदार्थों का ज्ञान होता है; और वेदान्त से संसार की और देह की अनित्यता. का ज्ञान होता है, किन्तु लौकिक व्यवहार मे इन शास्त्रो से कुछ भी प्रयोजन नहीं निकलता।
सांसारिक कार्य्य-व्यवहार- निर्वाह करने और सुख पूर्वक जीवनयापन करने के लिए जिस चीज की आवश्यकता है, वह “नीतिशास्त्र” है ।
इस शास्त्र का ज्ञान महलों मे रहने वाले राजा से लेकर कुटीर-निवासी क्षुद्र मनुष्य तक के लिए समान भाव से होना जरूरी है। अतः कहना चाहिये, कि नीति का अपूर्व माहात्म्य है ।
महाराजा भर्तुहरी
कहते है कोई दो हजार वर्ष पहले, राजपूनाने के मालवा प्रांत की उज्जयिनी नगरी में, – जिसे आजकल उज्जैन कहते है, – एक उच्च श्रेणी के विद्वान, नीतिकुशल, न्यायपरायण, प्रजावत्सल सर्व गुण सम्पन्न नृपति राज करते थे ।
आपका शुभ नाम महाराज भर्तृहरि था। आप अपनी प्रजा को निज सन्तान से भी अधिक चाहते थे और उसी की हित चिन्तना मे रात दिन मशगूल रहते थे ।
आपकी न्यायप्रियता और प्रज्ञा हितैषिका की चर्चा सारे भारत मे फैल गई थी, इसलिये अन्य राज्यो की भी बहुसंख्यक प्रजा अपना देश छोड़ कर आपके राज्य मे आकर बस गई थी; इससे उज्जयिनी की शोभा-समृद्धि आजकल के कलकत्ते बम्बई के समान होगई थी ।
घर्मात्या थी। सभी अपने-अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करते थे। ठौर-ठौर यज्ञ और हवन होते थे।
मेघ संमय पर यथेष्ट जल बरसाते थे । मालवा प्रान्त मे लोग अकाल का नाम तक भूल गये थे। राजा प्रजा के भण्डार सदा धन-धान्य मे पूर्ण रहते थे।
गरीब दोनो समय पेट भर अन्न खाते थे । प्रजा को किसी बात का दुग्ख क्लोश और अभाव नहीथा चोरी, जोरी, लूट-मार और डकैती एवं अत्याचार, अनाचार और व्यभिचार प्रभृति का नाम ही उठ गया था।
कभी ही कोई ऐसा केस राजदरबार में आता था। इन जुमों के मुजरिमो को महाराज सख्त सजा देते थे ।
न्याय, नीति और धर्म पर चलने वालों के लिये महाराज जैसे दयालु थे, दुष्ट और अन्यायियों के लिए वैसे ही कठोर थे। सारांश यह कि, महाराज को सभी उत्तमोत्तम राजोचित गुण विधाता ने दिये थे।
आपके राज्य मे शेर-चकरी एक घाट पानी पीते थे । कोई किसी की ओर आँख उठा कर नहीं देख सकता |
लेखक | भर्तृहरि-Bhartrihari |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 114 |
Pdf साइज़ | 15.3 MB |
Category | Religious |
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