श्री वैभवलक्ष्मी व्रत कथा | Vaibhavlakshmi Vrat Katha PDF In Hindi

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वैभवलक्ष्मी व्रत कथा, पूजा विधि, श्री यंत्र – Vaibhav Laxmi Vrat Katha PDF Free Download

श्री वैभवलक्ष्मी व्रत कथा

लाखों की जनसंख्या को अपने में समेटे कुशीनगर एक महानगर था। जैसी कि अन्य महानगरों की जीवनचर्या होती है, वैसा ही कुछ यहां भी था। यानी बुराई अधिक अच्छाई कम… पाप अधिक पुण्य कम।

इसी कुशीनगर में हरिवंश नामक एक सद्गृहस्थ अपनी पत्नी दामिनी के साथ सुखी-सम्पन्न जीवन गुजार रहा था। दोनों ही बड़े नेक और संतोषी स्वभाव के थे। धार्मिक कार्यों अनुष्ठानों में उनकी अपार श्रद्धा थी।

दुनियादारी से उनका कोई विशेष लेना-देना नहीं था। अपने में ही मगन गृहस्थी की गाड़ी खींचे चले जा रहे थे दोनों। किसी ने ठीक ही कहा है-‘संकट और अतिथि के आने के लिए कोई समय निर्धारित नहीं होता।’

कुछ ऐसा ही हुआ दामिनी के साथ-जब उसका पति हरिवंश न जाने कैसे बुरे लोगों की संगत में फंस गया और घर-गृहस्थी से उसका मन उचट गया।

देर रात शराब पीकर घर आना और गाली-गलौज तथा मारपीट करना उसका नित्य का नियम सा बन गया था। जुए, सट्टे, रेस तथा वेश्यागमन जैसे बुरे कर्म भी कुसंगति की बदौलत उसके पल्ले पड़ गए।

धन कमाने की तीव्र लालसा ने हरिवंश की बुद्धि हर ली और उसको अच्छे-बुरे का भी ज्ञान न रहा। घर में जो भी था, सब उसके दुर्व्यसनों की भेंट चढ़ गया।

जो लोग पहलें उसका सम्मान करते थे, अब उसे देखते ही रास्ता बदलने लगे। भुखमरी की हालत में भिखमंगों के समान उनकी स्थिति हो गई।

लेकिन दामिनी बेहद संयमी और आस्थावान तथा संस्कारी स्त्री थी। ईश्वर पर उसे अटल विश्वास था। वह जानती थी कि यह सब कर्मों का फल है।

दुख के बाद सुख तो एक दिन आना ही है…इस आस्था को मन में लिए वह ईशभक्ति में लीन रहती और प्रार्थना करती कि उसके दुख शीघ्र दूर हो जाएं। समय का चक्र अपनी रफ्तार से चलता रहा।

अचानक एक दिन दोपहर के समय द्वार पर हुई दस्तक की आवाज सुनकर दामिनी की तंद्रा भंग हुई। अतिथि सत्कार के भयमात्र से उसकी अंतरात्मा कांप उठी क्योंकि घर में अन्न का एक दाना भी नहीं था, जो अतिथि की सेवा में अर्पित किया जा सकता।

फिर भी संस्कारों की ऐसी प्रबलता थी कि उसका मन अतिथि सत्कार को उद्धत हो उठा। उसने उठकर द्वार खोला। देखा, सामने एक दिव्य -पुरुष खड़ा था।

बड़े-बड़े घुंघराले श्वेत केश… चेहरे को ढंके हुए लहराती दाढ़ी…गैरुए वस्त्रों का आवरण पहने…उसके चेहरे से तेज टपका पड़ रहा था… आंखें मानो अमृत-वर्षा सी कर रही थीं।

उस दिव्य-पुरुष को देखकर दामिनी को अपार शांति का अनुभव हुआ और वह उसे देखते ही समझ गई कि आगत वास्तव में कोई पहुंचा हुआ सिद्ध महात्मा है।

उसके मन में अतिथि के प्रति गहन श्रद्धा के भाव उमड़ पड़े और वह उसे सम्मान सहित घर के भीतर ले गई। दामिनी ने जब उसे फटे हुए आसन पर बैठाया तो वह ‘मारे लज्जा के जमीन में गड़-सी गई।

उधर वह संत पुरुष दामिनी की ओर एकटक निहारे जा रहा था। घर में जो कुछ भी बचा-खुचा था दामिनी ने अतिथि की सेवा में अर्पित कर दिया, पर उसने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया।

वह तो बस दामिनी को यूं निहारे जा रहा था, मानो उसे कुछ याद दिलाने की चेष्टा कर रहा हो। जब काफी देर तक दामिनी कुछ न बोली तो उसने कहा- ‘बेटी, मुझे पहचाना नहीं क्या?”

उसका यह प्रश्न सुनकर दामिनी जैसे सोते से जागी और अत्यंत सकुचाते हुए मृदुल स्वर में बोली-‘महाराज, मेरी धृष्टता को क्षमा करें, जो आप जैसे दिव्य पुरुष को मैं पहचानकर भी नहीं पहचान पा रही हूं, पारिवारिक कष्टों ने तो जैसे मेरी सोचने-समझने की शक्ति ही छीन ली है।

लेकिन यह निश्चित है कि संकट की इस घड़ी में मुझे आप जैसे साधु पुरुष का ही सहारा है…तभी जैसे दामिनी को कुछ याद हो आया…

वह उस साधु के चरणों में गिरकर बोल उठी-‘अब मैं आपको पहचान गई हूं महाराज! स्नेहरूपी अमृत की वर्षा करने वाले अपने शुभचिंतक को कोई कैसे भूल सकता है भला!’

वास्तव में वह साधु मंदिर की राह के मध्य में बनी अपनी कुटिया के बाहर वटवृक्ष के नीचे बैठ साधना किया करता था और मंदिर आने-जाने वाले सभी श्रद्धालु उसे प्रणाम करके स्वयं को कृतार्थ अनुभव करते थे। दामिनी भी उन्हीं में से एक थी।

जब पिछले काफी दिनों से उसने उसे मंदिर की ओर आते-जाते नहीं देखा तो उसकी कुशलक्षेम जानने के लिए पूछताछ करते हुए उसके घर की ओर आ निकला था।

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लेखक लोकसंस्कृति
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 50
PDF साइज़5 MB
Categoryव्रत कथाएँ

व्रत आरंभ करने से पूर्व

भक्तो! यह व्रत वैसे तो शीघ्र फल देने वाला है, किंतु यदि कर्म त्रुटि या भाग्य त्रुटि के कारण व्रत का फल न मिले तो निराश न हों, मां लक्ष्मी पर असीम श्रद्धा रखते हुए दो-तीन माह बाद पुन: व्रत प्रारंभ करना चाहिए तथा जब तक इच्छित फल न मिले, तब तक .तपस्या की भांति दो-दो माह के अंतराल में व्रत करते रहना चाहिए।

इस बीच पुस्तक में दिए गए चालीसा का नियमित पाठ व वैभवलक्ष्मी का गुणगान करते रहना चाहिए। ऐसा करने से मां लक्ष्मी अवश्य प्रसन्न होंगी और मनवांछित फल देंगी।

निम्न विधि द्वारा व्रत करने से मां लक्ष्मी की अनुकंपा प्राप्त होगी, ऐसा विश्वास रखें। मां वैभवलक्ष्मी का व्रत प्रारंभ करने से पूर्व पुस्तक में दिए ‘ श्री यंत्र’ को श्रद्धापूर्वक नमन करें।

यूं तो मां वैभवलक्ष्मी के आठों स्वरूपों को प्रणाम करना चाहिए, किंतु यदि आपने ‘ श्री यंत्र’ को प्रणाम कर लिया तो समझ लें कि मां लक्ष्मी के हर स्वरूप को प्रणाम कर लिया।

माँ लक्ष्मी के आठ स्वरूप हैं, जिनकी छवि पुस्तक में दी गई हैं। माता का पहला स्वरूप ‘ धनलक्ष्मी मां’ का है, दूसरा स्वरूप ‘श्री गजलक्ष्मी मां’ का, तीसरा स्वरूप है ‘ श्री अधिलक्ष्मी मां’ का, चौथा स्वरूप है ‘ श्री विजयलक्ष्मी मां’ का, ‘ श्री ऐश्वर्य लक्ष्मी’ मां का पांचवां स्वरूप है, छठा स्वरूप ‘श्री वीरलक्ष्मी मां’ का है, सातवां स्वरूप ‘श्री धान्यलक्ष्मी मां’ का है और मां का आठवां स्वरूप है ‘श्री संतान लक्ष्मी मां का।

माँ के हर स्वरूप या ‘श्री यंत्र’ को श्रद्धापूर्वक प्रणाम करने के उपरांत आभूषणों की पूजा करते समय निम्नलिखित ‘लक्ष्मी स्तवन’ का पाठ करें।

या रक्ताम्बुजवासिनी विलसिनी चण्डांशु तेजस्विनी ।

या रक्ता रुधिराम्बरा हरिसखी भारती मनोह्लादिनी ॥

या रत्नाकरमन्थनात्प्रगटिता विष्णोश्च या गेहिनी।

सा मां पातु मनोरमा भगवती लक्ष्मीश्च पद्मावती ॥

अर्थात जो लाल कमल के पुष्प पर विराजमान हैं, जो अतुलनीय कांति वाली हैं, जो महान तेज वाली हैं, जिन्होंने लाल वस्त्र धारण किए हुए हैं, जो भगवान श्री हरि की पत्नी हैं, वह लक्ष्मी मां सबके मन को आनंद देती हैं।

जिनका उद्भव समुद्र मंथन के समय सागर से हुआ था और जो भगवान विष्णु को अति प्रिय हैं, जो कमल पर विराजमान हैं और जो अतिशय पूजनीय हैं, वही मां लक्ष्मी! मुझ पर प्रसन्न रहें तथा मेरी रक्षा करें।

धनदा कवच

यं बीजं मे शिरः पातु ह्रीं बीजं मे ललाटकम्।

श्री बीजं मे मुखं रकार हृदयेऽवतु ।

तिकारं पातु जठरं प्रिकारं पृष्ठतोऽवतु।

ये कारं जंघयोर्युग्म रक्ताकारं पादमूलके ।

शिर्षादिपाद पर्यंत हकारं सर्वतोऽवतु।

उक्त धन्दा कवच का नित्य 5 या 7 बार पाठ करने से वैभव लक्ष्मी पाटकर्ता पर दयावान रहती हैं तथा उसके सभी मनोरथ पूर्ण करती हैं।

पूजन सामग्री

रोली, मौली, धूप, अगरबत्ती, ऋतुफल, पान, पुष्प, पुष्पमाला, दूब, दही, शहद, घी, मेहंदी, सिंदूर, गुड़, बताशे, श्वेत वस्त्र, रक्त वस्त्र (लाल कपड़ा), हल्दी, चावल, पंचमेवा, लौंग, इलायची, श्रीफल, दीपक, रूई, माचिस, पंचपल्लव, सुपारी, समिधा (हवन हेतु लकड़ियां), हवन सामग्री, लोटा (पानी का बरतन), कटोरी, चम्मच।

वैभव लक्ष्मी पूजन मंत्र

नमस्तेऽस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते।

शंखचक्र गदाहस्ते महालक्ष्मी नमोऽस्तुते॥

पद्मासन स्थिते देवि वैभवलक्ष्मि स्वरूपिणि ।

सर्वपाप हरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तुते॥

श्वेतांबर घरे देवि नाना अलंकार भूषिते ।

जगत् स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ॥

वैभव लक्ष्मी का ध्यान मंत्र

आसीना सरसीरुहे स्मितमुखी हस्ताम्बुजौर्विभूती,

दानं पद्म युगाभये च वपुषा सौदामिनी सन्निभा॥

मुक्ताहार विरान पृथुलोत्तुंगस्थनोभासिनी।

वायाः कमल टाक्ष विभवरानंदयंती हरिम् ।।

व्रत पूजा हेतु विधि-विधान

किसी भी कार्य को विधिपूर्वक संपन्न करने के लिए उसके कुछ नियम होते हैं। इन नियमों का पालन करके प्राणी जटिल-से-जटिल कार्यों में भी सफलता प्राप्त कर लेता है।

मां वैभवलक्ष्मी के व्रत को रखने के लिए भी हमारे धर्मगुरुओं ने कुछ नियम निर्धारित कर रखे हैं, जो इस प्रकार हैं:

  • यह व्रत शुक्रवार के दिन रखा जाता है। इस व्रत को प्रत्येक श्रद्धालु, कुंआरी कन्या, स्त्री या पुरुष रख सकते हैं।
  • यदि पति-पत्नी इस व्रत को मिलकर रखें तो मां लक्ष्मी अति प्रसन्न होती हैं।
  • यह व्रत 7, 11, 21, 31, 51, 101 या उससे भी अधिक शुक्रवारों की मन्नत एवं मनोकामना मानकर रखा जा सकता है।
  • व्रत हेतु मन एवं विचार शुद्ध होने चाहिए। व्रत करते समय मन में ऐसी स्वार्थ भावना नहीं रहनी चाहिए कि हमें धन प्राप्त करना है या धन की प्राप्ति के लिए ही हम यह व्रत कर रहे हैं, बल्कि मन में हर क्षण यह भावना होनी चाहिए कि हमें मां लक्ष्मी को प्रसन्न करना है। मां वैभवलक्ष्मी की कृपा प्राप्त करनी है।
  • मां वैभवलक्ष्मी का व्रत घर पर ही श्रद्धापूर्वक करना चाहिए, किंतु यदि किसी शुक्रवार को आप घर से बाहर हों तो उस शुक्रवार को व्रत स्थगित करके अगले शुक्रवार को करें।
  • रजस्वला नारियां भी उन दिनों के शुक्रवार छोड़ सकती हैं। बीमारी की हालत में भी वह शुक्रवार छोड़कर अगले शुक्रवार को व्रत रखें।
  • कुल मिलाकर व्रतों की संख्या उतनी होनी चाहिए, जितने शुक्रवारों की आपने मन्नत मानी है।
  • अंतिम शुक्रवार को विधिपूर्वक मां वैभवलक्ष्मी के व्रत का उद्यापन करना चाहिए।
  • व्रत संपूर्ण हो जाने पर लक्ष्मी पूजन के उपरांत श्रद्धापूर्वक सात कन्याओं को भोजन कराना चाहिए।
  • व्रत की संपूर्णता पर उद्यापन के उपरांत अपनी श्रद्धानुसार मां वैभवलक्ष्मी व्रतकथा की 11, 21, 31, 51, 101, 501 या अधिक पुस्तकें अपने आस-पड़ोस, मित्रों व संबंधियों में बांटनी चाहिए।

जिस शुक्रवार से व्रत रखने प्रारंभ करें, उस शुक्रवार को सुबह सूर्योदय से पूर्व उठकर नित्य क्रियाओं से निवृत्त होने के पश्चात स्नान आदि कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें, तब व्रत की तैयारी आरंभ करें। इस बीच कार्य करते समय निरंतर ‘जय माँ वैभवलक्ष्मी’ का जाप करते रहें।

व्रतकथा प्रारंभ करने से पूर्व एक चौकी (एटरे) पर चावल की एक छोटी-सी ढेरी बनाकर उस पर पानी से भरा तांबे का कलश स्थापित करें। उस पर कटोरी रखनी चाहिए। उसी कटोरी में

सोने-चांदी की कोई वस्तु (आभूषण आदि) या चांदी का रुपया रखना चाहिए। शुद्ध घी का दीपक तथा अगरबत्ती जलाएं।

तत्पश्चात मां के सभी स्वरूपों व ‘श्रीयंत्र’ को श्रद्धापूर्वक प्रणाम करना चाहिए। ऐसा करने से व्रत करने वाले प्राणी से मां वैभवलक्ष्मी अति प्रसन्न होती हैं। वह भक्त की सभी मनोकामनाओं को अति शीघ्र पूर्ण करती हैं।

व्रतकथा प्रारंभ करने से पूर्व प्रसाद के रूप में कोई भी मीठी वस्तु खीर, गुड़-शक्कर आदि या नैवेद्य बनाकर रख लेना चाहिए। पूजा-अर्चना करने से पूर्व मां वैभवलक्ष्मी का स्तवन व स्तुति करनी चाहिए।

श्रीयंत्र की महिमा

चमत्कारी विधाओं में यंत्रों को सहज ही सर्वोपरि माना जा सकता है। ऐसा माना जाता है कि यंत्रपूजा के अभाव में देवता प्रसन्न नहीं होते, तभी कहा भी गया है:

यंत्र मंत्रमय प्रोक्तं मंत्रात्मा दैवतैत हि। देहात्मनोर्यथा भेदो मंत्र देवतयोस्त्था॥

जिस प्रकार शरीर और आत्मा में कोई भेद नहीं होता, उसी प्रकार यंत्र और देवता में भी कोई अंतर नहीं होता।

समस्त प्रकार के यंत्रों में श्रीयंत्र को राजा माना जा सकता है क्योंकि यह धन की दात्री देवी लक्ष्मी का यंत्र है; और ऐसा मनुष्य तो शायद विरले ही ढूंढ़ने पर मिले, जो धनी होने की इच्छा न रखता हो।

इस यंत्र की पूजा करने वाले या धारण करने वाले को ऐसा प्रतीत होता है कि मां लक्ष्मी का वरदहस्त उस पर हर समय बना हुआ है।

यह यंत्र निश्चित रूप से अनंत ऐश्वर्य और असीमित लक्ष्मी प्रदायी है, आवश्यक है तो बस इतना कि यंत्र पूजन पूर्ण. श्रद्धा, निष्ठा और शास्त्रोक्त विधि अनुसार किया जाए।

जिस प्रकार अमृत से बढ़कर अन्य कोई औषधि नहीं, उसी प्रकार लक्ष्मी की कृपा प्राप्ति हेतु श्रीयंत्र की पूजा से बढ़कर अन्य कोई उपाय नहीं।

सामान्यतया किसी भी माह के शुक्लपक्ष में अष्टमी के दिन ब्रह्ममुहूर्त में शय्या त्यागकर, दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर शुद्ध-शांत स्थान में पूर्वाभिमुख बैठकर धूप-दीप जलाकर भोजपत्र पर इस यंत्र को लिखना चाहिए।

वैसे ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण करवाकर यंत्र स्थापना करना श्रेष्ठ रहता है। यदि भोजपत्र पर लिखना हो तो अनार या तुलसी की कलम से लाल चंदन से लिखें।

वैसे इस यंत्र की स्थापना हेतु रविवार और अष्टमी का योग पौष संक्रांति के दिन हो तो सर्वोत्तम माना जाता है।

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