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असहयोग आंदोलन के कारण – Because Of The non co-operation movement PDF Free Download
असहयोग आंदोलन
खिलाफत आंदोलन अपने अखिल इस्लामिक चरित्र के अलावा अपने मनोवेग में गहरे स्तर पर साम्राज्यवाद विरोधी और राष्ट्रवादी था।
इसके अलावा कई अन्य कारण थे जिन्होंने सामान्यतः भारतीय जनता के अंदर तीव्र साम्राज्यवाद विरोधी भावनाओं को पैदा किया। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान और उसके बाद देश की आर्थिक और राजनीतिक स्थिति ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असंतोष निर्मित किया।
युद्ध के दौरान और उसके पश्चात् वस्तुओं की बढ़ती कीमतों ने जनता की मुश्किलों को बढ़ाया। इसके अतिरिक्त देश के कई भागों में किराए और करों की बढ़ती हुई मांग से किसान भी असंतुष्ट थे।
यह देश के विभिन्न भागों जैसे- चंपारण खेडा, अहमदाबाद, बाम्बे मद्रास आदि में हुए किसानों और मजदूरों के प्रदर्शनों से परिलक्षित हुआ।
युद्ध के दिनों के राजनीतिक आशावाद को भी तब गहरा धक्का लगा जब ब्रिटिश सरकार राष्ट्रवादी मांगों पर विचार करने के अपने उन वादों से पीछे हट गई जो उसने युद्ध भारतीयों की मदद के बदले किए थे।
मोटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार जिसके परिणामस्वरूप 1919 का भारत सरकार अधिनियम आया ने राष्ट्रवादियों का मोहभंग कर दिया जो स्वशासन की दिशा में अधिक आशा लगाए हुए थे।
1918 में बाम्बे में एक विशेष सत्र में कांग्रेस ने इन प्रस्तावों को निराशाजनक और असंतोषजनक कहते हुए निंदा की और प्रभावी स्वशासन की मांग की।
घाव को और कुरेदते हुए औपनिवेशिक सरकार ने मार्च 1919 में रौलट अधिनियम पारित किया, जिसने सरकार को किसी भी व्यक्ति को बिना किसी ट्रायल के गिरफ्तार करने और जेल में डालने की शक्ति दे दी।
यह अधिनियम केंद्रीय विधायी परिषद् में भारतीय सदस्यों के एकजुट विरोध के बावजूद पारित किया गया। इसने भारतीय जनता को क्रुद्ध कर दिया और व्यापक अशांति मड़क उठी।
महात्मा गाँधी के नेतृत्व में देशव्यापी सत्याग्रह का आयोजन किया गया। भारी मात्रा में जनसभाएँ विरोध प्रदर्शन और हडताले हुई जिनके परिणामस्वरूप कुछ हिंसा की वारदातें भी हुई।
पंजाब के जालियाँवाला बाग में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों का औपनिवेशिक सरकार द्वारा कत्लेआम अंतिम तिनका साबित हुआ।
13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जालियों वाला बाग में एक विशाल किन्तु शातिपूर्ण जनसमुदाय रौलट विरोधी प्रदर्शनों में भाग ले रहे अपने नेताओं की गिरफ्तारी का विरोध करने एकत्र हुआ था।
जनरल डायर ने अपने सैनिकों को निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाने का आदेश दिया। इस गोलीबारी में सैकड़ों मारे गए और हजारों घायल हुए।
इस निर्दयता ने संपूर्ण राष्ट्र को हिला दिया और ब्रिटिश सरकार द्वारा धारण किए हुए सभ्यता के मुखौटे को फाड़कर उतार दिया।
महान कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विरोध स्वरूप अपनी नाइट हुड की उपाधि लौटा दी और घोषणा की कि मैं, अपनी तरफ से सभी असाधारण विशिष्टताओं से रहित होकर अपने देशवासियों के पक्ष में खड़ा हूं।
इसी तरह की भावनाएँ चारों तरफ फैली थी और यह एक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के उभार का समय था।
गाँधी के नेतृत्व के तहत दो आंदोलनों का जुड़ाव
राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य पर गाँधी का उदय चंपारण, खेड़ा तथा अहमदाबाद में किसानों एवं मजदूरों के संघर्ष में उनकी रचनात्मक मध्यस्थता के बाद हुआ।
युद्ध के पश्चात, वह लगभग आम सहमति से कांग्रेस के नेतृत्व के लिए उम्मीदवार के रूप में उभर रहे थे. मुख्यतः बालगंगाधर तिलक की खराब तबीयत के कारण अहिंसा में उनके विश्वास तथा सत्याग्रह के जरिए संघर्ष की उनकी पद्धति से जनता भी परिचित हो गई थी।
रौलट विरोधी आंदोलन और खिलाफत आंदोलन युद्ध के बाद की दो व्यापक लामबंदियां थीं जो औपनिवेशिक सरकार के विरुद्ध निर्देशित की गई थी, और गाँधी ने इन दोनों में ही मुख्य किरदार निभाया।
यह कहा जा सकता है कि यह उनका नेतृत्व ही था जिसने राष्ट्रवादी और खिलाफत दो साम्राज्यवाद विरोधी धाराओं के जुडाव को संभव बनाया।
खिलाफत के नेता एकदम शुरुआत से ही हिन्दुओं के सहयोग को प्राप्त करने के इच्छुक थे। इस प्रयास में उन्होंने गाँधी को अपने सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में पाया।
गाँधी ने उन्होंने आगे खिलाफत से जुड़े मुद्दों पर मुस्लिम जोर को स्वशासन की राष्ट्रवादी भाग से जोड़ने की कोशिश की। उन्होंने घोषित किया कि मुसलमानों के मुद्दों के उचित समाधान में स्वराज्य की अनुमति छुपी है।
लेखक | – |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 9 |
PDF साइज़ | 2 MB |
Category | History |
Source/Credits | drive.google.com |
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