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हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास – Hindi Sahitya Ka Bruhat Itihas PDF Free Download
हिंदी साहित्य
हिंदी भारतवर्ष के बहुत बड़े भूभाग की भाषा है। गत एक हजार वर्ष से इस भूभाग की मैनेक बोलियो मे उत्तम साहित्य का निर्माण होता रहा है। इस देश के जन- जीवन के निर्माण में इस साहित्य का बहुत बडा हाथ रहा है । सत और भक्त कवियों के सारगर्भित उपदेशो से यह साहित्य परिपूर्ण है।
देश के वर्तमान जीवन को समझने के लिये और उसे अभीष्ट लक्ष्य की ओर अग्रसर करने के लिये यह साहित्य बहुत उपयोगी है । इसी लिये, इस साहित्य के उदय और विकास का ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विवेचन महत्वपूर्ण कार्य है।
इस बृहत् हिदी साहित्य के इतिहास मे लोकसाहित्य को भी स्थान दिया गया है, यह खुशी की बात है। लोकभाषाओं मे अनेक गीतो, वीरगायाश्रो, प्रेमगाथाओ तथा लोकोक्तियो आदि की भी भरमार है। विद्वानो का ध्यान इस ओर भी गया है, यद्यपि यह सामग्री अभी तक अप्रकाशित ही है।
लोककथा और लोककथानको का साहित्य साधारण जनता के अतरतर की अनुभूतियों का प्रत्यक्ष निदर्शन है। अपने बृहत् इतिहास की योजना मे इस साहित्य को भी स्थान देकर सभा ने एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है।
प्रबुक्त विमेषसो में ‘उष्च, पीन’ पादि उनके घाकार तथा ‘कठौर, कोरे आदि उनके गुणो के प्रकाशक है । किंतु ‘ठाडे’, ‘डॅँचीहैं, ‘उठें, ‘उचके उनके क्रियात्मक पक्ष के घोतक है ।
अपनी क्रियात्मकता के कारण इनमें चिलोत्लेखन तथा भावोद्दीपन की क्षमता अपेक्षाकृत अधिक परिलक्षित होती है। ‘ठाडे’ रौर बरें सामान्यत पर्यायवाची होते हुए भी सूक्ष्म अर्थभेद रखते है।
बरे’ मे जो मासलता भौर विषयोत्तेजकता (सेसुघमिटी) निहित है बह ‘ठाढे’ मे कहाँ । रीतिबद्ध कवियों के विशेषणो का वैशिष्टय तवतक पूर्णत प्रकट नहीं किया जा सकता जबतक रीतिमुक्त कवियों के विशेषणो से इनकी तुलनान कर ली जाय ।
अनघानद के विशेषण ‘तृषित चवनि’ (ब० क०, न० ) प्रिया निपेटनि’ (प. क०,००२६), ‘प्रीति पगो पंखियानि (च० क०, छ० ३४)आदि- एक अन्य प्रकार के दृष्टिकोण के चोतक है ।
स्पष्ट है कि इन विशेषणो पर विषयिनिष्ठता का गहरा रग है चनमानद के विशेषण मुख्यत मात्रयगत है तो रीतिबद्ध कवियो के आलवनगत । इसलिये स्वाभाविक है कि मराधयवत विशेषण जहाँ व्यया और दैन्य के चित्र उपस्थित करते है वहाँ पालंदनयत विशेषण ऐड्रियविलास के गदविद्वन चित्र ।
ऐक में विर्ह धर जलन की गभीरता है तो दूसरे में समोग और भोग की चटकीली रगीनी। अप्रधान यौन अवयबो (सेकडरी सेक्जुप्रल कैरेक्टसं) के अतिरिक्त नारी के वस्त्रो के लिये-विशेषत चूनरी, साडी तथा चोली के लिये-रागोहीपक विशेषणो के प्रयोग हुए है। सामान्यत साडी और चोली दोनो के लिये लाल विशेषण का प्रयोग अधिक हुमा है। लाल रग अन्य रगो की अपेक्षा अधिक चक्षुग्राह्य और उत्तेजनात्मक होता है।
देव ने इस रग को और भी उत्तेजनामूलक और प्रभावापत्र बनाने के लिये चूनि चूनरि लाल लिखकर उसक ‘ठाडे’ रौर बरें सामान्यत पर्यायवाची होते हुए भी सूक्ष्म अर्थभेद रखते है। बरे’ मे जो मासलता भौर विषयोत्तेजकता (सेसुघमिटी) निहित है बह ‘ठाढे’ मे कहाँ ।
लेखक | डॉ. नागेंद्र-Dr. Nagendra |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 448 |
Pdf साइज़ | 48.6 MB |
Category | इतिहास(History) |
हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास – Hindi Sahitya Ka Bruhat Itihas Book/Pustak Pdf Free Download