बृहत पाराशर होरा शास्त्र इन हिंदी | Brihat Parashara Hora Shastra PDF In Hindi

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बृहत पाराशर होरा शास्त्रम् हिन्दी पुस्तक – Brihat Parashar Hora Shastram PDF Free Download

बृहत पाराशर होरा शास्त्र

एवं दशाप्रदाद्राशेर्द्वितीयाष्टमयोर्द्विज |

ग्रहसाम्ये च विज्ञेयः केमदुः शशिनेक्षिते । ।१११ ।।

इसी प्रकार दशाप्रद राशि से दूसरे, आठवें भाव में ग्रहसाम्य हो और चन्द्रमा देखता हो तो केमद्रुम योग होता है। १११ ।।

दशाप्रारम्भसमये शोधयेज्जन्मलग्नवत् ।

सूर्यादिखेचरान् स्पष्टान् साधयेज्जन्मवद्द्द्विज । ११२ । ।

दशा प्रवेश समय में सूर्यादि ग्रहों और लग्न को साधना चाहिए। ११२ ।।

तत्र वित्ताष्टमे भावे ग्रहसाम्यो यदा भवेत् ।

तदा केमद्रुमो ज्ञेयश्चन्द्रदृष्ट्या विशेषतः । ।११३ । ।

उस समय उक्त भावों में ग्रहसाम्य और चन्द्रमा की दृष्टि हो तो केमद्रुम योग होता है । ११३ ।।

एवं तन्वादिभावानां दशारम्भेषु योजयेत् ।

तत्तद्ग्रहानुसारेण फलं वाच्यं बुधैः सदा । ११४ । ।

इसी प्रकार तनु आदि भावों की दशा के आरंभ में भी योजना करना चाहिए। क्योंकि उस समय के ग्रह के अनुसार ही फल होता है । ११४ । ।

इति बृहत्पाराशरहोरायां पूर्वखण्डे सुबोधिन्यां कारकांशफलकथनं नामाऽष्टमोऽध्यायः ।

अथाऽ ऽरूढमाह

अधुना सम्प्रवक्ष्यामि राश्यारूढपदं द्विज ।

राशीनां द्वादशानान्तु यावदीशाश्रयो भवेत् ।।१।।

अब में राशि का आरूढ़-पद कहता हूँ- बारहों राशियों का उसके स्वामी जहाँ बैठे हों, उस राशि के राशि की संख्या जितनी हो ।।१।।

संख्या त्वीशोदयादग्रे समाना तत्पदं वदेत् ।

राशिवग्रह आरूढं ज्ञायते गणकैर्जनैः । । २ ।।

उतनी संख्या और आगे गिनने से जो राशि हो वही आरूढ़ लग्न या पद होता है।

इसी प्रकार अर्थात् राशि के ही समान ग्रहों का भी आरूढ़ लग्न होता है ।।२।।

यावद्दूरं यस्य राशिस्तावत्संख्याक्रमेण वै |

अग्रे लग्नारूढपदं ज्ञायते द्विजसत्तम ।।३।।

जिस ग्रह की राशि उस ग्रह से जितनी दूर हो उतनी ही संख्या आगे उस ग्रह की लग्नारूढ़ राशि होती है ।। ३ ।।

जनुर्लग्नाल्लग्नस्वामी यावद्दूरं हि तिष्ठति ।

तावद्दूरं तदग्रे च लग्नारूढं च कथ्यते ।४ ।।

जन्मलग्न से लग्नेश जितनी दूर राशि पर हो उतनी ही राशि आगे जो राशि हो उसे लग्नारूढ़ राशि रहते हैं ।।४।।

यदि लग्नेश्वरः स्वर्षे कलत्रे संस्थितोऽथवा ।

आरूढलग्नमित्याहुर्जन्मलग्नं द्विजोत्तम ॥५॥

यदि लग्नेश अपनी राशि के सप्तम में हो तो जन्मलग्न ही आरूढ़ लग्न होती है ।।५।।

एकं तन्वादिभावानां भावारूढपदं भवेत् ।

यत्र यत्र ग्रहा लग्ने तत्र तत्र सुसंलिखेत् । । ६ । ।

इसी प्रकार तन्वादि भावों का प्रत्येक का आरूढ़ बनाना चाहिए। ॥६॥ इस प्रकार लग्नारूढ़ को लग्न मानकर चक्र बनावे। उसमें जो ग्रह जिस स्थान में हो वहाँ लिखकर फल कहे।

विशेष— यहाँ पद और आरूढ़ शब्द दोनों एकार्थक हैं। जैमिनि के मत से यदि लग्नेश लग्न से चौथे भाव में हो तो चतुर्थभावगत राशि और सातवें भाव में हो तो दशमभावगत राशि लग्न का पद होता है। जैसे मिथुन लग्न का स्वामी बुध वृश्चिक राशि में है, मेषादि गणना से वृश्चिक की संख्या ५ है, अतः वृश्चिक से ५वीं मेष राशि ही.

लेखक
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 810
PDF साइज़30 MB
CategoryBook
Source/Creditsarchive.org

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