भारतीय राजनीति | Indian Politics PDF In Hindi

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भारतीय राजनीति – Bhartiya Rajneeti Pdf Free Download

भारतीय राजनीति

वहाबी आन्दोलनके नेता थे । १८३१ में उनकी मृत्यु हो गयी और उनके बाद आन्दोलन का संचालन उनके शिष्य करते रहे ।सैयद अहमद मुसलमानों के उन धार्मिक नेताओंकी परंपरामेंसे थे जो शाह वली उल्लाहके काल ( १७१९ ई० ) से आरंभ होती है

जो भारतमें फिरसे मुसलमानोंकी सत्ता जमाने के लिए धार्मिक और राजनीतिक आन्दोलन करती रही। सैयद अहमद राय बरेली के रहनेवाले थे। उनके जीवनकालमें पंजाबमैं सिखोंका राज्य था। उन्होंने मुन रखा था कि सिख

राजा रणजीतसिंहके राज्यमें सिख लोग “मुसरमानोंके साथ बुरा बर्ताव करते हैं, उन्हें धार्मिक कर्तव्य पूरे करनेसे रोकते हैं, और उनके इबादतके स्थानोंको अपवित्र करते है। इसलिए सैयद अहमदने उनके राज्यको दालहवं घोषित कर दिया और उसके विरुद्ध

जिहाद करनेका निर्णय किया । यद्यपि मराठोंने भी तभी अपना राज्य स्थापित किया था, परन्तु वे मुसलमानोंके धार्मिक कामोंमें बाधा नहीं डालते थे।

उनके राज्यमें मुसलमान लोग अपने धर्म, कर्में स्वच्छन्द थे। उन्होंने मुसलिम काजियों को भी उनके स्थानोंपर कायम रखा ।

इसलिए मुसलमान लोग मराठों और राजपूतों के राज्योंको दारुल हर्व नहीं बस्क दारुल-इसलाम मानते थे।

दारुल-इसलाम उस राज्यको कहते थे जहाँ इसलाम धर्मके पालनमें कोई बाधा न थी; उसका विपरीत राज्य दाल-हर्ब कहलाता था जिसके विरुद्ध शत्रुताका व्यवहार और जिहाद करना धर्म समझा जाता था।

रणजीतसिंह स्वयं मुसलिम-विरोधी न था । उसके अति विश्वासपात्र लोगोंमें उसका मुसलिम मनत्री पीरजादा

अजीजउद्दीन भी था उसके तोपखानेका प्रधान अधिकारी भी इलाहीवनश नामक एक मुसलमान था, जिसके नामसे तोपखाना इलाही बर् तोपखाना कहल्यता था।

मुसलमानों के प्रति बुविजय प्राप्त करनेका सशस्त्र आन्दालन उत्तरमा अपागानिस्तानकादायतास आरम्म दाना चाहिये, और स्वयं भारतमें मुसलमान लोग इस भैया की ओर तैयारी करें उन दिनों मुसलमानोंको, अथवा किसी भी जातिको, संपटित करनेके लिए धार्मिक नारे बहुत जरूरी होते थे।

बंगाल में इस्तमरारी बन्दोबस्तने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी जिससे सन् १८५९ में किसान विद्रोह हो गया ।

यह बन्दोबस्त अंग्रेजी राजकी बड़ी देन गिना जाता था क्योंकि इससे जमींदार बार-बार मालगुजारी बढ़नेके खतरे से बच गये थे।

गल्लेके दाम बढ़ रहे थे और काश्तकारों की आमदनी बढ़ रही थी क्योंकि लगान नहीं बढ़ा था ।

किसानकी इस आपेक्षिक समृद्धिने जमींदारोंको लालची बना दिया और १९ वीं शताब्दी के मध्य में इन्होंने लगान बढ़ाने शुरू किये ।

फल यह हुआ कि जमींदारको तो बँधी हुई मालगुजारी ही देनी होती थी परन्तु वे किसानोंसे बढ़े हुए भावोंके अनुपातसे भी अधिक लगान वसूल करने लगे ।

सन् १८५९ में सरकारने लगान वृद्धि पर रोक लगानेकी एक हल्की सी कोशिश की पर उससे काश्तकारोंका विशेष लाभ नहीं हुआ ।

बंगालके दुखी किसानोंने ऐसी स्थिति में लगानबन्दी आन्दोलन करनेका निर्णय किया।

वे सब उसका फल भोगने के लिए भी तैयार हो गये। बंगालके सबसे शान्त जिले पावनामै किसान विद्रोहकी स्थिति पैदा हो गयी।

लेकिन यह विद्रोह पूरी तरह से वैधानिक था ।

आवेशके कुछ नगण्य उफानोंको छोड़ दें तो किसानों की सारी नीति यही मालूम पड़ती थी कि ‘हम लड़ेंगे नहीं और हम लगान भी नहीं देंगे; हम दखिलकार काश्तकारोंके हक माँनेंगे;

लगानकी हर रकम वसूल करनेके लिए तुम जमींदार लोगोंको मुकदमा लड़ना पड़ेगा; अर्जीदावेसे लेकर जमीन के नीलामतक, ये मुकदमें हम हर स्तरपर लड़ेंगे; कानून के हर पेच, फेर और वाक् छलेको अस्त्र बनाकर हम देर लगायेंगे;

तुम्हें आखिरकार डिगरी मिल जायगी, पर डिगरी पाने में तुम तबाह भी हो जाओगे; हमारी हालत तो खराब है ही और तुम्हें लगान देनेके लिए अपनी आखिरी गाय बेचनेसे अच्छा है कि हम गाय बेचकर तुमसे अदालत में लड़ लें ।’

बंगालके दो तिहाई – ६० लाख लोग १० शिल्डिंगसे कम ही सालाना लगान देते हैं। ऐसे छोटे किसानोंके देशमें मुकदमें लड़ लड़कर लगान वसूल करना असंभव है । और किसानोंकी एकता तथा संघटनने सचमुच ही बहुतसे जमींदारोंको बर्बाद कर दिया ।”

अगले साल, सन् १८६१ में बंगालके काश्तकारोंने फिर मोर्चा लिया। इस बार यह यह मोर्चा नीलके यूरोपीय प्लाण्टरोंके खिलाफ था।

बिहार और बंगालमें कुछ उद्योगी यूरोपीयों द्वारा शुरू की गयी नीलकी खेती के पीछे एक दर्द भरी, यातनाओंकी कहानी छिपी हुई है।

किसानों की एक बहुत बड़ी संख्याको धोखा देकर इनसे लम्बी अवधिके लिए नीलकी खेती करनेके इकरारनामें लिखा लिये गये थे।

बादमें बेचारोंको पता लगा कि नीलकी खेती में मुनाफा नहीं होता ।

पर इन इकरारनामों के बलपर दमन और दबाव डालकर उन्हें नीलकी खेती करने को मजबूर किया गया, यद्यपि वे यह खेती छोड़ना चाहते थे । बंगाल सरकारक कागजातसे पता चलता है कि प्लाण्टरोंके साथ पुलिस और मजिस्ट्रेटोंतककी मिली भगत थी।

बंगालके लेफ्टिनेण्ट गवर्नर भी प्लाण्टरों के पक्षमें थे। लेकिन अन्त में किसानोंकी दयनीय दशा और अमानुषिक अत्याचार देखकर अफसरों को भी अपना रुख बदलना पड़ा ।

काश्तकारों की सहनशीलता सीमातक पहुँच चुकी थी । आखिरकार उन्होंने साहस बटोरकर गोरे मालिकों के खिलाफ विद्रोह कर दिया।

इन इकरारनामोंके बावजूद उन्होंने नील बोनेसे इनकार कर दिया। कुछ जगहोंपर उन्होंने हिंसासे काम लिया, कुछ दूसरी जगहों पर उन्होंने नील कोटियाँ जला दीं; पर हिंसाकी ऐसी घटनाएँ कम ही थीं।

विद्रोहका १. डब्लू डब्लू इण्टर ‘इण्डिया आव दि क्वीन एण्ड अदर एसेज’ पृ० १४३

लेखक कृष्ण कुमार-Krishna Kumar
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 479
Pdf साइज़55.4 MB
Categoryइतिहास(History)

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