राजस्थान की कला एवं संस्कृति | Art And Culture Of Rajasthan PDF In Hindi

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राजस्थान की कला और संस्कृति की जानकारी – Information About Art And Culture Of Rajasthan PDF Free Download

कला और संस्कृति

संस्कृति संस्कृति संस्कार से बना हैं। जिसका अर्थ कृत्य या अनुष्ठान करना होता है। किसी राष्ट्र या समाज की आत्मा होती है, जो एक प्रवाहमय |

जीवन पद्धति का मार्ग प्रशस्त करती है। यह समाज के रहन-सहन प | खान-पान का तरीका होता है। संस्कृति मुख्यरूप से दो प्रकार की होती |

है एक भौतिक संस्कृति जिसमें भौतिक वस्तुएँ आती है. जिनका उपयोग | मानव द्वारा करके अपने जीवन के ढंग को बदलता है। दूसरी अभीतिक |

संस्कृति इसमें वे सभी नियम कानून आते है या रीति-रिवाज प्रथाएँ आती | है, जिनके द्वारा मानव समाज को नियंत्रित रखा जाता है।

संस्कृति के दो अंग या उपकरण माने गये है एक आन्तरिक अंग जिसे चरित्र कहा जाता है, दूसरा बाहय अंग जिसे कला कहा जाता है 1 सभ्यता- किसी समाज की कला विशेष मे जीवन पद्धति है, जो समय के | साथ-साथ बदलती रहती हैं) कला सौन्दर्य की अभिव्यक्ति द्वारा सुख प्रदान करने वाली वस्तु ही कला है।

कला हिन्दी के दो शब्दों से मिलकर कामदेव- दय, हर्ष, उल्लास लोक अर्थात् जो बताया कामुकता प्रद वही कला है।

संस्कृत कला का निर्माण कल धात जिसका अर्थ मेलित कर है जिसमें व्यक्ति विभिन्न प्रकार की वस्तु ॥ को देखकर यह ऐसा करत प्रयास करती ह

जबकि अंग्रेजी में Art का तात्पर्य कला होता है, जिसका भावार्थ सिए शारीरिक कौशल होता है। कोई भी कार्य करने से पूर्व मानसिक विचा आते है तत्पश्चात यसका शारीरिक परिश्रम द्वारा रूप दिया जाता है। अर्थात् सुन्दर कौशल है।

कला मुख्यरूप से कार की होती है.

उपयोगी कला जो मानव समाज माली शिल्ल गर उपयोगी होती है।

ललित कला जिसके द्वारा सौन्दर्य, हर्ष, कामुकता की अनुभूत होता है। यह निम्नलिखित प्रकार की होती है भवन निर्माण.

स्थापत्य कला

मंदिर, स्तूप आदि आते है। मूर्तिकला – मूर्ति निर्माण करना ये प्राय धातु पत्थर या मिटटी की बनी होती है, जिसमें संगमरमर की मूर्तिया जयपुर की प्रसिद्ध है, जबकि कांसे की बनी मूर्तिया जोधपुर की प्रसिद्ध है तथा मिट्टी की मोलेला (राजसमंद की प्रसिद्ध है।

चित्रकला चित्र बनाने की कला होती है राजस्थान में ये चित्र दीवार, स्तम्भ, छत, वस्त्र, कागज, भोजपत्र पर बनाये जाते है। उपरोक्त तीनों है कलाएं रूप प्रधान कलाएं है, जिसमें सुदरत पर जोर दिया जाता है |

मुस्लिम संत अली जो शाक्त (पार्वती) के उपासक थे। इन दोनों में शास्त्रार्थ काव्य दंगल हुआ करता था। इन विद्वानों से प्रभावित होकर चंदेरी | के राजा ने तुकनगीर को अपने मुकुट नाथानेह अली को कलंगी ।

भेट की तभी से यह नाट्य तुर्रा-कलंगी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसम तुरा शिव का प्रतीक माना जाता है, जबकि कलंगी पार्वती का प्रतीक मानी जाती | है। इन दोनों संतों ने मेवाड आकर इस विधा को प्रस्तुत किया। मेवाड के ।

सहेडू सिंह (तुरी) तथा हमीद बेग (कलंगी) ने इसे मेवाड में प्रसिद्ध किया। ! तुर्रा अखाडे का झण्डा भगवा होता है तथा यह भगवा वस्त्र ही धारण करते। है, जबकि कलंगी अखाडे का झण्डा हरा होता है तथा ये हरे वस्त्र ही धारण करते है। इस नाट्य के दौरान स्टेज को सजाया जाता है तथा संवादों को बोल कहा जाता है।

मेवाड के तुकनगीर व अली मुस्लिम संतों द्वारा रचित ख्याल निम्बाहेडा, चित्तौडगढ और घोसुण्डा में लोकप्रिय है। इसके प्रमुख कलाकार जयदयाल सोनी, चेतराम सोनी, ताराचंद ठाकुर ओंकार सिंह है। वर्तमान में नानालाल गन्धर्य इस कला के प्रसिद्ध कलाकार है।

कुचामनी ख्याल

इसमें ऐतिहासिक प्रसंगों के साथ चरित्र निर्माण की गवरी शिक्षा दी जाती है। इसमें लोकगीतों की प्रधानता है। उगमराज जी इस ख्याल के प्रसिद्ध खिलाडी है। कुचामन (नागौर) के लच्छीराम इस ख्याल ज के प्रवर्तक है। इसका रूप ऑपेरा जैसा होता है।

जयपुरी ख्याल :- इसमें पौराणिक, ऐतिहासिक य हास्य प्रसंगों के साथ समाज सुधार का यतार्थ प्रदर्शन किया जाता है। इस ख्याल के प्रवर्तक है. रज्जब अली खां माने गये है तथा गुणीजन ख्याल के कलाकर अल्लादीया खा भी इस ख्याल के कलाकार रहे है। इसमें मुख्यरूप से जोगी ज

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