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विवेकानन्द साहित्य- Vivekanand Sahitya All Parts Pdf Free Download
विवेकानन्द जन्मशती संस्करण सभी खंड
तुम्हारी समझ में बा जायेगी जब मैं कहूंगा कि बाजीवन इस संस्कृत भाषा का अध्ययन करने पर भी जब मै इसकी कोई गयी पुस्तक उठाता हूँ,
तब यह मुझे बिल्कुल नयी जान पड़ती है बय सोचो कि जिन लोगों ने कभी विशेष रूप से इस भाषा का अध्ययन करने का भय नहीं पाया, उनके लिए यह भाषा फिदनी बभिक विशिष्ट होगी।
अतः मनुष्यों की बोलचाल की भाषा में उन विचारों की शिक्षा देनी होगी साथ ही संस्कृत की भी शिक्षा अवश्य होती रहनी चाहिए,
म्योंकि संस्कृत शब्दों की ध्वनि मात्र से ही जाति को एक प्रकार का गौरव, शक्ति और बल प्राप्त हो जाता है।
महान् रामानुज, चैतन्य वीर कवीर ने भारत की नीची जातियों को उठाने का जो प्रयत्न किया था, उसमें उन महान् धर्माचार्यों को अपने ही जीवन-काल में अद्भुत सफलता मिली थी किन्तु फिर उनके वाद उस कार्य का जो शोचनीय परिणाम हुआ, उसकी व्याख्या होनी चाहिए |
जिस कारण उन बड़े बड़े धर्माचार्यों के तिरोभाव के प्रायः एक ही शताब्दी के भीतर वह उन्नति रुक गयी, उसकी भी व्याख्या करनी होगी इसका रहस्य यह है उन्होंने नीची जातियों को उठाया था।
वे सब चाहते थे कि ये उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर आख्ड़ हो जायें, परन्तु उन्होंने जनता में संस्कृत का प्रचार करने में अपनी शक्ति नहीं लगायी।
यहां तक कि भगवान बुद्ध ने भी यह भूल की कि उन्होंने जनता में संस्कृत शिक्षा का अध्ययन बंद कर दिया। वे तुरन्त फल पाने के इच्छुक थे,
इसीलिए उस समय की भाषा पाली में संस्कृत से अनुवाद कर उन्होंने उन विचारों का प्रचार किया।
यह बहुत ही सुन्दर हुआ था, जनता ने उनका अभिप्राय समझा, क्योंकि वे जनता की बोलचाल की भाषा में उपदेश देते थे।
वेदान्त के वाद ही स्मृतियों का प्रमाण है। ये भी ऋषिलिखित ग्रन्थ हैं, पर इनका प्रमाण बेदान्त के अधीन है, क्योंकि वे हमारे लिए बैसे ही हैं, जैसे दूसरे धर्मेवालों के लिए उनके शास्त्र। हम यह मानते हैं कि विशेष ऋषियों ने ये स्मृतियाँ रची हैं; इस दृष्टि से अन्यान्य धर्मो के शास्त्रों का जैसा प्रमाण है, स्मृतियों का भी वैसा हे पर स्मृतियाँ हमारे लिए अन्तिम प्रमाण नहीं ।
यदि स्मृतियों का कोई अंश वेदान्त का विरोधी हों, तो उसे त्यागता पड़ेगा, उसका कोई प्रमाण न रहेगा। फिर स्मृतियाँ हर युग में बदलती भी गई हैं।
हम शास्त्रों में पढ़ते हैं–सत्ययुग में अमुक स्मृतियों का प्रमाण है, फिर त्रेता, द्वापर और कलियुग में से प्रत्येक युग में अन्यात््य स्मृतियों का ।
जाति पर पड़ने वाले देश-काल-पात्र के परिवर्तन के प्रभाव के अनुसार आचारों और रीतियों का परिवर्तन होना अनिवार्य है; और स्मृतियों को ही, प्रधानतः इन आचारों और रीतियों का नियामक होने के कारण, समय समय पर बदलना पड़ा है।
मैं चाहता हूँ कि तुम लोग इस वात को अच्छी तरह याद रखी। वेदान्त में धर्म के जिन मूल तत्त्वों की व्याख्या हुई है वे अपरिवर्तनीय हैं।
क्यों ?-इसलिए कि वे मनुष्य तथा प्रकृति सम्बन्धी अपरिवत्तनीय तत्त्वों पर प्रतिष्ठित है, वे कभी वदलरू नहीं सकते।
आत्मा, स्वर्ग-प्राप्ति आदि की भावना कभी बदलने की नहीं। हज़ारों वर्ष पहले वे जैसी थीं, अब भी वैसी हैं और छातों वर्ष बाद भी वैसी ही रहेंगी।
परन्तु जो धर्मानुप्ठान हमारी सामाजिक अवस्था और पारस्परिक सम्बन्ध पर निर्भर रहते हैं, समाज के परिवर्तन के साथ वे भी वदल जायंगे।
इसलिए विशिष्ट विधि केवल समय विशेष के लिए हितकर और उचित होगी, न कि दूसरे समय के लिए। इसीलिए हम देखते हैं कि किसी समय किसी खाद्यविशेष का विधान रहा है और दूसरे समय नहीं है।
वह खाद्य उस विशेष समय के लिए उपयोगी था; पर जलवायु आदि के परिवर्तन तथा अन्यान्य परिस्थितियों की माँग को पूरी करने की दृष्टि से स्मृति ने खाद्य आदि के विपय में विधान बदल दिया है।
इसलिए यह स्वतः प्रतीत होता है कि यदि वर्तमाव समय में हमारे समाज मे किसी परिवर्तन की ज़रूरत हो तो वह अवश्य ही करता पड़ेगा।
ऋषि छोग आकर दिखा देंगे कि किस तरह वह परिवर्तन सम्पन्न करना होगा, परन्तु हमारे धर्म के मूल तत्त्वों का एक कण भी परिवतित न होगा; वे ज्यों के त्यों रहेंगे.
लेखक | स्वामी विवेकानंद – Swami Vivekanand |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 409 |
Pdf साइज़ | 16 MB |
Category | साहित्य(Literature) |
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विवेकानन्द साहित्य जन्मशती संस्करण – Vivekanand Sahitya Janmshati Sanskaran Pdf Free Download