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निबन्ध माला – Nibandh Mala All Std PDF Free Download

निबन्ध माला
यह निबंध माला किताब विधार्थियों के पढने और निबंध लिखने में सहायता करती है जो std 8, std 9, std 10 आदि में अभ्यास करते है
भाव या मनोविकार
अनुसूति के द्वन्द्व ही से प्राणी के जीवन का आरम्भ होता है। उच्च प्राणी मनुष्य भी केवल एक जोड़ी अनुभूति लेकर इस संसार में जाता है। बच्चे के छोटे-से हृदय में पहले सुख और दुःख की सामान्य अनुभूति भरने के लिए जगह होती है।
पेट का भरा या खाली रहना ही ऐसी अनुभूति के लिए पर्याप्त होता है। जीवन के आरम्भ में इन्हीं दोनों के चिह्न हँसना और रोना देखे जाते है पर ये अनुभूतियां बिलकुल सामान्य रूप में रहती है,
विशेष विशेष विषयों की ओर विशेष विशेष रूपों में ज्ञानपूर्वक उन्मुख नहीं होती । नाना विपयों के दोष का विधान होने पर ही उनसे सम्बन्ध रखने वाली इच्छा की अनेकरूपता के अनुसार अनुभूति के भिन्न-भिन्न योग संघ टित होते है
जो भाव या मनोविकार कहलाते हैं। अतः हम कह सकते है कि सुख और दुःख की मूल अनुभूति ही विषय-भेद के अनुसार प्रेम, हास, उत्साह, आश्चर्य, क्रोध, भय, करुणा, घृणा इत्यादि मनोविकार का जटिल रूप धारण करती हैं।
जैसे यदि शरीर में कहीं सुई चुभने की पीड़ा हो तो केवल सामान्य दुःख होगा; पर यदि साथ ही यह ज्ञात हो जाय कि सुई चुमानेवाला कोई व्यक्ति है तो उस दुःख की भावना फई
मानसिक और शारीरिक वृत्तियों के साथ संश्लिप्ट होकर उस मनोविकार की योजना करेगी जिसे क्रोध कहते है । जिस बच्चे को पहले अपने ही दुःख का ज्ञान होता था,
बढ़ने पर असंलक्ष्यक्रम अनुमान द्वारा उसे और बालकों का कष्ट या रोना देखकर भी एक विशेष प्रकार का दुःख होने लगता है जिसे दया या करुणा कहते हैं।
इसी प्रकार जिस पर अपना वश न हो ऐसे कारण से कष्ट पहुँचाने वाले भावी अनिष्ट के निश्चय से जो दुःख होता है वह भय कहलाता है। बहुत छोटे बच्चे को, जिसे यह निश्चयात्मिका बुद्धि नह.
आज उसके माध्यम द्वारा हम अन्तर्राष्ट्रीय ज्ञान-विज्ञान के सम्पक में आए हैं। संसार के लगभग सभी प्राचीन साहित्यों में काल्पनिक या काव्य-साहित्य को प्रधानता मिली है।
साद्िित्य के इतिहास का अध्ययन करने से यही निष्कपं निकलता है कि मौखिक रूप में किसी सुन्दर प्राकृतिक हश्य था मानसिक भावावेग का वर्णन करने वाला पहला व्यक्ति कवि रहा होगा ।
वैसे भी मनुष्य के जीवन में वुद्धि-तत््व से पहले हृदयतत्व का स्थान है। काल्पनिक या काव्य-साहित्य के अतिरिक्त ज्ञानवर्धक साहित्य को साहित्य की शास्त्रीय परिभाषा के अन्तर्गत परिगणित नहीं किया जाता । विश्व-साहित्य के इस विकास-क्रम में भारतीय साहित्य अपवाद-स्वरूप नहीं रहा |
संस्कृत में काव्य ही लोकोत्तर आनन्द प्रदान करने वाला मानता गया है । ईसा की नवीं दसवी शत्ताब्दी से अपभ्रंशपरम्परा हूट जाने के बाद लगभग सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यों ने संस्कृत के आदर्शों का पालन किया |
भरबी-फ्ारसी साहित्यों के साथ सम्पक स्थापित हो जाने पर भी गद्य-रचना को कोई प्रोत्साहन न मिल सका । अतएवं हिंदी-गद्य के लिए ईसा की उन्नोसवीं शताब्दी ही महत्वपूर्ण है, यद्यपि उससे पहले भी गद्य मिलता है, किन्तु कम और स्फूट रूप में । उन्नीसवी शताब्दी से पूर्व वह साहित्य का प्रधान अंग्र न बन पाया था ।
ऐतिहासिक घटता-चक्र के अनुसार उन्नीसवीं शत्ताव्दी, के भारतवर्ष में एक नवीन युग की अवतारणा हुईं। उस समय भारतवासियों का पश्चिम की एक सजीव और उन्नतिशील जाति के साथ सम्पक स्थापित हुआ ।
यह जाति अपने साथ यूरोपीय मौद्योगिक क्रांति के बाद फो सभ्यता लेकर आई थी । उसके द्वारा’ प्रचलित नवीन शिक्षापद्धति, वैज्ञानिक आविष्कारों ओर प्रवृत्तियों से हिदी साहित्य भछुता न रह सका ।
उन्नीसवी शताब्दी के पूर्वार्द में हिन्दी साहित्य परम्परा और रढि का अनुसरण कर रहा था। नवीनता यदि मिलती है तो वह केवल खड़ीबोली गद्य के रूप भें–नवीन इस अर्थ मे कि इसी समय वह साहित्य का एक प्रमुख्॒ और स्थायी अंग बना ।
हमें इस समय खड़ीवोली गद्य की निश्चित अटूट परम्परा मिलने लगती हैं जिससे उसके उज्ज्वल भविष्य का पता भी चलता है|
खडीबोली ने अपने वाल्य-काल में ही संसार के जिन विविध विषयों का भार वहन किया उसे देखकर आएचर्य हुए बिना नही रह सकता। प्राथमिक शिक्षा, गणित, वीजग्गाणत, ज्यामिति, क्षेत्र-विज्ञान, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, समाज-शाल्र, विज्ञान, चिकित्सा, राजनीति, आईन, कृषि-कर्म, ग्राम-शासन, ग्राम-जीवन, तार, कला-दस्तकारी, शिक्षा, यात्रा, नीति, धर्म, ज्योतिष, दर्शन, अंग्रेज़ी राज्य और शिक्षा, फथा-कहानी, छत्द-शासत्र, व्याकरण, कोप, संग्रहे-म्रन्थ (गद्य-पद्च) आदि अनेक विपयों से सम्बन्धित छोटे-बड़े ग्रंथों का निर्माण खड़ीवोली में हुआ ।
हिंदी प्रदेश के जीवन में आधुनिकता का वीजारोपण खड़ीवोली की इन्ही गद्य-रचनाओं से माना जाता चाहिए । इसी आधथुनिकता का विकास हमें भारतेन्दु-युग में मिलता है ।
ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन, फ़ोर्ट विलियम कॉलेज, ईसाई पादरियों, स रकारी शिक्षाआयोजनाओं तथा विभिन्न शिक्षण-संस्थाओं, समाचार-पत्र-कला और इन सबसे किसी-न-किसी रूप में संबंधित अथवा प्रारम्भ में ही पराश्चात्य साहित्य के सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों के माव्यम द्वारा खढ़ीवोली गद्य का विकास हुआ ।
वास्तव में यदि खड़ीबोली गद्य के इतिहास को हिंदीप्रदेश के जीवन में बढ़ते हुए पाएचात्य प्रभाव का इतिहास कहे तो अनुचित न होगा ।
लेखक | लक्ष्मी सागर-Lakshmi Sagar |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 180 |
Pdf साइज़ | 8.2 MB |
Category | निबंध(Essay) |
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