अपना अपना भाग्य – Apna Apna Bhagya Story Book Pdf Free Download

अपना अपना भाग्य कहानी
बहुत कुछ निरुद्देश्य घूम चुकने पर हम सड़क के किनारे की एक बैच पर बैठ गए। नैनीताल की संध्या धीरे-धीरे उत्तर रही थी। ई के रेशे-से भाप-से बादल हमारे सिरों को छ-कर बेरोक-टोक पूम रहे थे।
हल्के प्रकाश और अंधियारी से रंगकर कभी वे नीले दीखते, कभी सफेद और फिर देर मैं अरुण पड़ जाते। वे जैसे हमारे साथ खेलना चाह रहे थे। पीछे हमारे पोलो वाला मैदान फैला था।
सामने अंग्रेजी का एक प्रमोदगृह था, जहां सुहावना, रसीला बाजा बज रहा था और पारी में था वही सुरम्य अनुपम नैनीताल। ताल में किश्तियां अपने सफेद पाल उड़ाती हुई एक-दो अंग्रेज यात्रियों को लेकर, इधर से उपर और उपर से इपर खेल रही थी।
कहीं कुछ अंरोज एक-एक देवी सामने प्रतिस्थापित कर, अपनी सुई-सी शक्ल की हगियों को, मानो पात बांधकर सरपट दौड़ा रहे थे।
कहीं किनारे पर कुछ साहब अपनी बसी झाले, सर्य, एकाय, एकस्य, एकनिष्ठ मछली-चिन्तन कर रहे थे।
पीछे पोली-लान में बचचे किलकारियां मारते हुए हॉकी खेल रहे शोर, मार-पीट गाली-गलीच भी जैसे खेल काही अंश था।
इस तमाम खेल को उतने कगी का उद्देश्य बना, वे बालक अपना सारा मन, सारी देह समय बल और समूची विधा लगाकर मानो खत्म कर देना चाहते थे।
उन्हें आगे की चिन्ता न थी. बीते का ख्याल न था। वे सुदध तत्काल के प्राणी थे। शब्द की सम्पूर्ण सच्चाई के साथ जीवित थे। सड़क पर से नर-नारियों का अविरल प्रवाह आ रहा था और जा रहा था।
उसका न और थान छोरा यह प्रवाह कहा जा रहा था और यहां से आ रहा था, कौन बता सकता है सब उसके सब तरह के लोग उसमे थे। मानी मनुष्यता के नमूनी का बाजार सजकर सामने से इठल्पाला निकला चला जा रहा हो।
लेखक | जिनेन्द्र कुमार-Jinendra Kumar |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 9 |
Pdf साइज़ | 1 MB |
Category | कहानियाँ(Story) |
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