कुरुक्षेत्र कविता – Kurukshetra PDF Free Download
रामधारी सिंह दिनकर की कविता कुरुक्षेत्र
विश्व-मानव के हृदय निष में मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का; चाहता लड़ना नहीं समुदाय है, फैलती लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से ।
हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से, हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही उपचार एक अमोघ है प्रन्याय का, अपकर्ष का, विष का, गरलमय द्रोह का।
सड़ना उसे पड़ती मगर । मो जीतने के बाद भी,रणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआ ; वह सत्य, है जो रो रहा इतिहास के अध्याय में विजयो पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता।उस सत्य के मापात सेहै
भतभना उठती शिराएँ प्राण की असहाय सी, सहसा विपंची पर लगे कोई परिचित हाय ज्यों। वह तिलमिला उठता, मगर, है जानवा इस चोट का उत्तर न उसके पास है।
सहसा हृदय को तोडकर कदती प्रतिध्वनि प्राणगत वनियार सरधापात को- ‘नरमा बहावा रक्त, है भगवान ।
मने कया किया ?”और जब तीव्र हर्ष-निनाद उठ कर पाण्डवों के शिविर से घूमता फिरता गहन कुरुक्षेत्र की मृतभूमि में, लड़खड़ाता-सा हवा पर एक स्वर निस्सार-सा, लौट आता था भटक कर पाण्डवों के पास ही, जीवितों के कान पर मरता हुआ,
और उनपर व्यंग्य-सा करता हुआ ‘देख लो, बाहर महा सुनसान है सालता जिनका हृदय में, लोग वे सब जा चुके ।।हर्प के स्वर में छिपा जो व्यंग्य है, कोन सुन समझे उसे ?
सब लोग तो अर्द्ध-मृत-से हो रहे आनन्द से: जय-सुरा की सनसनी से चेतना निस्पन्द है । किन्तु, इस उल्लास-जड़ समुदाय में एक ऐसा भी पुरुष है, जो विकल बोलता कुछ भी नहीं, पर, रो रहा मग्न चिन्तालीन अपने-आप में।
“सत्य ही तो, जा चुके सब लोग हैं दूर ईया-रेप, हाहाकार से । मर गये जो, वे नहीं सुनते इसे : हर्ष का स्वर जीवितों का व्यंग्य है।”
लेखक | दिनकर-Dinkar |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 146 |
Pdf साइज़ | 1.8 MB |
Category | काव्य(Poetry) |
रामधारी सिंह दिनकर की कविता कुरुक्षेत्र – Kurukshetra Book/Pustak Pdf Free Download