भारत भारती | Bharat Bharati Book PDF Free Download

पुस्तक का एक मशीनी अंश
राजा सत्यव्रत का यह नियम था कि उसके दाज़ार में जो चीजें विव ने के लिए आवें वे यदि दिन भर में न बिक सके तो शाम को स्वयं राजा उन्हें खरीद लेगा । राजा सर्वदा अपने इस नियम का पालन करता था ।
एक दिन एक लुहार लोहे की बनी हुई शनिश्र की मूर्ति लाया और कहने लगा कि इसका मूल्य एक लाख रुपया है। पर जो कोई इसे खरीदेगा उसे लक्ष्मी, धर्म, कर्म, और यश आदि सब छोड़ जांगे । उसकी ऐसी बातें सुन कर उस मूर्ति को किसीने ख़रीदा।
नियमानुसार शाम को वह मूर्ति राजा के सामने लाई गई । राजा ने सब कुछ सुन समझ कर भी उसको खरी लिया । अपने नियम को नहीं तोड़ा। आधी रात के वक्त एक सुन्दर सी ने आकर राजा से कहा कि मैं तुम्हारी राजलक्ष्मी हूँ।
तुम्हारे यहाँ शनिश्चर आ गया, अब मैं नहीं रह सकती । मुझको विदा दीजिए । रा.र ने ६ आ जाओ । फिर इसी तरह धर्म, कर्म और यश मी विदा हुए ।. अन्त में सत्यदेव आये,और बोले कि हे राजा ! मैं सत्य हूँ। शनिश्चर के कारण मैं अब नहीं रह सकता, जाता है ।
राजा ने उठ कर हाथ पकड़ लिया और कहा कि लक्ष्मी, धर्म और यश जाय तो भले ही चले जायँ; पर आप कहाँ जाते हैं ? आपको रखने के लिए ही तो मैंने शनिश्रर की मूर्ति ली है ! सत्य से उत्तर देते न बना ! जब सत्य न गया तब लक्ष्मी, धम्मं और यश आदि सब लौट भार।
वह भोष्म का इन्द्रिय-दमन, उनकी धरा-सी धीरता, वह शोल उनका और उनकी वीरता, गम्भीरता । उनकी सरलता और उनको वह विशाल विकता, है एक जन के अनुकरण में सब गुणों की एकता ॥
पर्चा हमारी भी कमी संसार में सर्वत्र बी. यह सद्गुणों को कीर्ति मानों एक और कलत्र थी। इस दुर्दशा का स्वप्न में मो क्या हमें कुछ ध्यान था, क्या इस पतन ही को हमारा वह अतुल उत्थान या
उन्नत रहा होगा कमी जो हो रहा अवनत अमी, जो हो रहा अवनत अभी, उन्नत रहा होगा कमी । इंसते प्रथम जो पद्म हैं तम-पक्क में फैसते बही, मुरझे पड़े रहते कुमुद जो अन्त में हँसते वही |। ५।
उन्नति तथा अवनति प्रकृति का नियम एक अखण्ड चढ़ता प्रथम जो व्योम में गिरता वही मार्तण्ड है अतएव अवनति ही हमारी कह रही उन्नति-कला, उत्थान हो जिसका नहीं उसका पतन ही क्या मला
होता समुन्नति के अनन्तर सोच अवनति का नहीं, ह, सोच ता है जो किसी की फिर न हो उन्नति कहीं चिन्ता नहीं जा व्योम-विस्तृत चन्द्रिका का हास हो, चिन्ता तभी है जब न उसका फिर नवीन विकास हो
है ठीक ऐसी ही दशा हतभाग्य भारतवर्ष को, का से इतिश्री हो चुकी इसके अखिल उत्कर्ष की । पर सोच है केवल यहा यह नित्य गिरता ही गया, जद में फिरा है व इससे नित्य फिरता ही गया।
यह नियम है, व्यान में पक कर गिरे पचे जहाँ, प्रकटित हुए पीछे उन्हीं के बलदे पल्लव वहाँ । पर हाय ! इस उद्यान का दूसरा हो हा हैं, पतझड़ कहें या सूखना, कायापलट या काल है !||
अनुकूल शोमा-मूल सुरमित फूल वे कुम्हला गये, फलते कहाँ हैं अब यहाँ वे फल रसाल नये नये ? वस, इस विशालोद्यान में अब माढ़ या झंखाड़ हैं, तनु सूख कर काँटा हुआ, बस शेष हैं तो हाड़ है।सहृदय जनों के चित्त निर्मल कुड़क जाकर काँच-से होते दया के वश द्रवित है तल हो इस आँच से ।
लेखक | मैथिलीशरण गुप्त-Maithilisharan Gupta |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 196 |
Pdf साइज़ | 20.71 MB |
Category | साहित्य(Literature) |
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